नीरज दइया का राजस्थानी कविता-संग्रह ‘पाछो कुण आसी’

पाछो कुण आसी (राजस्थानी कविता संग्रह) नीरज दइया/ प्रकाशक : सर्जना, शिवबाड़ी रोड, बीकानेर- 334003/ संस्करण : 2015/ पृष्ठ : 96/ मूल्य : 140/-
डॉ. नीरज दइया
जन्म : 22 सितम्बर 1968, रतनगढ़ (चूरू)
कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (हिंदी) साख, देसूंटो, पाछो कुण आसी (राजस्थानी) जादू रो पेन (बाल कथाएं) आलोचना रै आंगणै, बिना हासलपाई (आलोचना) 24 भारतीय भाषाओं के कवियों की कविताओं का अनुवाद ‘सबद-नाद’ के साथ निर्मल वर्मा, अमृत प्रीतम, भोलाभाई पटेल, मोहन आलोक की कृतियों का अनुवाद। बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादेमी एवं अनुवाद के लिए प्रांतीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार। ‘नेगचार’, ‘जागती जोत’ आदि पत्रिकाओं का संपादन। 
संपर्क : सी-107, वल्लभ गार्डन, पवनपुरी, बीकानेर - 334 003 (राजस्थान)


पुस्तक पर लिखा गया  ब्लर्ब

आत्मीयता से रचित संवेदनशील बिम्ब 
—आईदानसिंह भाटी, जोधपुर
         ‘पाछो कुण आसी’ कविता-संग्रह की कविताएं शब्दों के इर्द-गिर्द छुप्पम छुप्पा खेलती है, जो सवालों की सीढ़िया खड़ी होकर मनुष्यता से कभी सीधा संवाद करती है और कभी उस से प्रश्नों की भा षा में बात करती है। ‘म्हारी कविता कठै अड़ै भाई थारै?’, ‘थे ओळखो तो हो कविता नैं....?’ जैसी कविताओं में यह बात देखी जा सकती है।
         नीरज दइया की ये कविताएं आज और गुजरे कल की कविताएं तो है ही, आने वाले कल की दीप्ती भी इन कविताओं में दिखाई देती है। बदलती जिंदगानी, बदलते संबंधों, बदलती तकनीक, बदलता नियम-कानूनों के बीच लड़थड़ता आदमी मृग के उनमान भटक रहा है। भटकन की इस प्यास के विचारात्मक और संवेदनशील बिम्ब नीरज ने आत्मीयता से रचे हैं। भाषा और शिल्प भी इन में सर्वथा उचित है। गद्य-कविताओं से ले कर छंद की लय तक का इस में प्रयोग किया गया है।
काव्य-संवेदना की माकूल पहचान
—नंद भारद्वाज, जयपुर
         राजस्थानी लेखन के समकालीन दौर में एक कवि और आलोचक के रूप में नीरज दइया ने आपनी पर्याप्त पहचान बनाई है। मौलिक सृजन और साहित्यिक चर्चा-आलोचना के क्षेत्र में वे राजस्थानी की नई कविता के बड़े पक्षधर के रूप में पहचाने जाते हैं। उनकी कविता में जीवन के राग-रंग, लोकराज में मनुष्यता के मानवीय-मूल्य और प्रेम-अपनत्व के मानवी रिस्तों का मनोहर चित्रण उनके हृदय के ऊहापोह और सुकोमलता कवि-मन के साक्ष्य हैं। वे किसी अमूर्त भावलोक के शब्दों की कला-रसिकता में नहीं, आम जन-जीवन के लोक-व्यवहार में कविता की सार्थकता और भविष्य देखते हैं। मुझे यह बात कहने में लेश मात्र भी शंका नहीं है कि नीरज दइया आपने साहित्यकार पिता (सांवर दइया) की विरासत और सृजन-संवेदना की पूरी अंवेर के साथ स्वयं की काव्य-संवेदना में भी पर्याप्त पहचान हासिल की है।



10 अक्टूबर, 2015 लोकार्पण समारोह का एक चित्र

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