बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

नवनीत पाण्डे का राजस्थानी उपन्यास : ‘‘दूजो छैड़ो’’ 02

दूजो छैड़ो (राजस्थानी उपन्यास) नवनीत पाण्डे / संस्करण : 2016 / पृष्ठ : 128 / मूल्य : 250/- प्रकाशक : ऋचा (इण्डिया) पब्लिशर्स, बीकानेर / आवरण : कुंवर रवीन्द्र
नवनीत पाण्डे
जन्म : 26 दिसम्बर, 1962
हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से पिछले पच्चीस वर्षों से सृजनरत।
पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधाओं में रचनाओं का प्रकाशान।
माटी जूण (उपन्यास) हेत रा रंग (कहानी संग्रह) के अलावा राजस्थानी बाल साहित्य के अंतर्गत दो बाल कविताओं के संग्रह प्रकाशित।
महाश्वेता देवी के उपन्यास का राजस्तनी अनुवाद ‘1084 वें री मा’ साहित्य अकादेमी से प्रकाशित। हिंदी मेम तीन कविता संग्रह और लघुनाटकों की किताबें प्रकाशित।
राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर तथा राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर से सम्मानित-पुरस्कृत। अंतरजाल पर भी बेहद सक्रिय उपस्थिति और राजस्थानी भाषा के प्रवल समर्थक। स्थाई संपर्क : प्रतीक्षा 2-डी-2, पटेलनगर, पवनपुरी, बीकानेर- 334003
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पुस्तक के ब्लर्ब का अनुवाद :
बदलते और बदले हुए राजस्थान की कहानी
० डॉ. नीरज दइया, बीकानेर
     ‘दूजो छैड़ो’ उपन्यास नवनीत पाण्डे का नायिका प्रधान दूसरा उपन्यास है। इस से पूर्व उन्होंने ‘माटी जूण’ (2002) में नायिका मिसरी की कथा को एक लघु उपन्यास में प्रस्तुत की थी। इस दूसरे छोर तक पहुंचते-पहुंचते उपन्यासकार ने जैसे 14 वर्षों का अंतराल भोग कर उपन्यास विधा के कुछ नए नियम इजाद किए हैं।
    ‘दूजो छैड़ै’ के बारे में प्रथम बात तो यह कि राजस्थानी उपन्यास-परंपरा में बहुत से ऐसे उपन्यास है, जो नायिका प्रधान हैं, पर इस में विधागत प्रयोग और नायिका की अंतस-चेतना प्रशंसनीय कही जा सकती है। यह उपन्यास पूर्ववर्ती उनके उपन्यास की तुलना में पर्याप्त विस्तार के साथ आया है। इसे रचते हुए नवनीत पाण्डे ने सावधानी रखी है कि पढ़ने वालों के समक्ष स्त्री-पुरुष समानता का सच अपने पूरे मर्म के साथ उद्घाटित हो। चार दीवारों की दुनिया से मुक्ति होकर भी पुरानी स्मृतियां और घर-परिवार की बातें आजीवन संग रहती है। यह भी सत्य है कि विगत जैसा भी हो वह आजीवन छाया की भांति साथ चिपका रहता है, उससे मुक्ति संभव नहीं।
    ‘दूजो छैड़ो’ उपन्यास में मुळक (मुस्कान) नाम की नायिका जिला कलेक्टर जैसे पद पर पहुंच कर अपनी विगत जिंदगी को पाठकों के समक्ष अपने पत्रों, डायरी और मनःस्थितियों के बहाने कहने लगती है। नायिका का यह कहना नए रूप में होते हुए भी कथा के आदि सवरूप से मिलता है, जहां एक कहानी कहने वाला था और दूसरा सुनने वाला। घर-परिवार, समाज और राज्य की यह कथा असल में मुळक के माध्यम से आज के बदलते और बदले हुए राजस्थान की कहानी है जिस में स्त्री अस्मिता की नई छवि नजर आती है।
‘दूजो छैड़ो’ उपन्यास में सांस्कृतिक, सामाजिक और भौगोलिक वैभव आपने अनेक रंगों में मन-मोहक है। यह उपन्यास एक स्वप्न है जब हमारे यहां का शासन और बड़े अधिकारी आपनी जमीन और जड़ों से जुड़कर भाषा के माध्यम से यह खजाना संभालने का सोच साकार करेंगे। अपनी भाषा-बुणगट, प्रयोग और पात्रों की विविधता के आधार पर ‘दूजो छैड़ो’ समकालीन राजस्थानी उपन्यास परम्परा में महत्त्वपूर्ण, पठनीय और रोचक उपन्यास माना जाएगा।
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नारी जीवन के सपनों और संघर्ष की गाथा
० मदन गोपाल लढ़ा, महाजन (बीकानेर)
   
     ‘दूजो छैड़ो’ कवि-कथाकार नवनीत पाण्डे का नया व दूसरा राजस्थानी उपन्यास है जिसमें नारी जीवन के यथार्थ और उसके बढ़ते कदमों का अंकन हुआ है। राजस्थान के सामाजिक परिदृश्य को उजास में लाता यह उपन्यास विरासत व परम्परा के साथ बदलाव की बयार को भी शब्द सौंपता है।
    कथ्य की बात करें तो इसका कथानक सीधा-सरल है। परम्परागत राजपूत समाज की लड़की मुळक अपने ख्वाबों को पूरा करने के लिए संघर्ष का रास्ता स्वीकार करती है तथा लम्बे उतार-चढ़ाव के बाद कलेक्टर के ओहदे तक पहुँच जाती है। उपन्यासकार ने पूर्वदीप्ति शैली में मुळक के जिलाधीश डॉ. मुळक सिंह बनने की कथा को विस्तार से पिरोया है जिसमें मुख्य कथा के साथ कुसुम, अज्जू, रश्मि आदि की प्रासंगिक कथाएं भी उपन्यास का हिस्सा बनी हैं।
कहना न होगा, जो व्यक्ति वक्त के साथ कदमताल करते हुए बदलाव की राग को अंगेज लेते हैं, वे ही जीवन समर में टिके रहते हैं। जो परम्परा के नाम पर रूढ़ियों का दामन थामे रहते हैं उनको अंततः हारना ही पड़ता है। उपन्यास में जीसा ऐसे ही पात्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सामंती जीवन की अकड़ में वक्त की आहट को अनदेखा कर देते हैं ओर आखिर अलग-थलग पड़ने के लिए विवश हो जाते हैं। यह उपन्यास इस बात की भी पुष्टि करता है कि शिक्षा किस तरह बदलाव की जमीन तैयार करती है जिसके जरिए आधी दुनिया अपने सपनों को पंख सौंप सकती है।
    ‘आपणै देस रै कित्ता ई घर-आंगणां में, म्हारै जैड़ी नीं जाणै कित्ती ई मुळकां नरक सरीखी जूण जीवै आ खिमतावान हुवती थकी ई म्हां दांई साचै अरथां में मुळक हुवणै सूं वंचित रैय जावै।’ मुळक के इस कथन में हमारे समय व समाज का कड़वा सच प्रकट हुआ है जिसे बदलने के लिए ऐसे रचनात्मक उपक्रम जरूरी है।
    यह उपन्यास कथानायिका के साथ रुकमा भुआ, रश्मि, निर्मला जैसे स्त्री सामर्थ्य के कई सशक्त पात्र राजस्थानी जगत को सौंपता है जो अपने आत्मविश्वास, साहस व लगन के बलबूते पाठकों की मन-मगजी पर छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं। मरुभूमि बीकानेर का परिवेश इस उपन्यास में बोलता बतियाता है जो रचना को नए रंग देता है। कथ्य के लिहाज से इस उपन्यास का पाठ किंचित नाटकीय लगता है वहीं शुरूआत में मुळक का पांच-छह पृष्ठों का लम्बा भाषण भी अखरता है। इसके बावजूद आलोचक डॉ नीरज दइया के इस अभिमत से असहमति का कोई कारण नजर नहीं आता है कि भाषा-बुणगट, प्रयोग और पात्रों की विविधता के आधार पर ‘दूजो छैड़ो’ समकालीन राजस्थानी उपन्यास परम्परा में महत्त्वपूर्ण, पठनीय और रोचक उपन्यास माना जाएगा।
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नारी शक्ति और वेदना की अभिव्यक्ति : दूजो छैड़ो
० मोहन थानवी, बीकानेर

      कवि- कथाकार नवनीत पांडे के दूसरे राजस्थानी उपन्यास ‘दूजो छैड़ो’ और पहले उपन्यास ‘माटी जूण’ के प्रकाशन में 14 वर्ष का लंबा अंतराल है। इस अंतराल में जमाना बदला, वहीं उपन्यासों के कलेवर भी प्रभावित हुए हैं। उपन्यासकार ने अपने इस नए उपन्यास में नए कलेवर को अलग अंदाज से पाठकों के सम्मुख रखा है। उपन्यास में आधुनिक युग की नारी-शक्ति और उसके अंतरमन में फैले-पसरे अंर्तद्वन्द्व की समयानुकूल व्यथा-कथा बताती डा. मुळक सिंह कलेक्टर का अभिनंदन का प्रथम दृश्य और पहला पैराग्राफ ही जिज्ञासा उत्पन्न करता है, नारी-शक्ति री महिमा गाई जाएगी या यादों का सैलाब उमड़ेगा। शक्ति की वेदना जैसे जैसे हम पाठ में उतरते हैं चेहरों से झांकने लगती है।
      समृद्ध राजस्थानी-हिंदी उपन्यास लेखन का एक वृहद इतिहास रहा है। नवनीत पांडे के इस उपन्यास पर उनके पूर्ववर्ती राजस्थानी उपन्यासकारों के लेखन, कथानक, पात्रों का असर हो, ऐसा इंगित नहीं होता। हां, दूजो छैड़ो पढ़ते समय यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ के सामंतकाल के कथानक और उनके नारी-पात्रों का स्मरण यकबयक हो आता है। अपनी अलहदा और विशेष लेखन शैली वाले नवनीत पाण्डे को बीकानेर में श्रीयुत श्रीलाल नथमल जोशी, यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, अन्नाराम ‘सुदामा’, देवदास रांकावत आदि का सान्निध्य प्राप्त हुआ और ये वे हस्ताक्षर हैं जो हिंदी-राजस्थानी उपन्यास विधा के लिए सदैव चमकते नक्षत्र रहेंगे। नवनीत पांडे ने अपने उपन्यास की नायिका को अपनी जिन्दगी के उन पलों को सुनाते हुए उकेरा है, जो तत्कालीन समाज और वर्तमान (कथानक में) का वर्णन स्वतः ही करने में सक्षम हैं। कथा सुनाने-सुनने की लोकजीवन की सुदीर्घ परंपरा का निर्वहन यहां बखूबी सामने आता है। नायिका प्रधान राजस्थानी उपन्यासों में ही नहीं वरन समग्र राजस्थानी उपन्यासों में आपबीती को क्रमबद्ध श्रवण करवाने की ऐसी शैली इस अंदाज में नए रूप में इस्तेमाल हुई है।
      उपन्यास अपने कथानक और अविस्मरणीय चरित्रों के संवादों-घटनाओं को उकेरते हुए ज्यों-ज्यों चरम की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों वर्णित की जा रही कथा में दूसरा छोर पाठकों की पकड़ में आ जाता है। यही खूबी नवनीत पांडे को अन्य उपन्यासकारो से अलहदा मुकाम देती है। मुळक अपनी बाल्यावस्था में जिस नायिका को अपने समय और समाज का साक्षी बनाती है। वह कहती है- सभी लड़कियां तो पढ़ने जाती हैं, मैं ही स्कूल क्यों नहीं जाती? साक्षर होते समाज की व्यवस्था में बालिका शिक्षा की अनदेखी को यहां उपन्यासकार बखूबी उकेर कर सफल रहे हैं। उपन्यास के समापन से पूर्व नायिका के रूप में कलेक्टर मुळक अपने दफ्तर-परिसर में विक्षिप्तावस्था में भटक रही किशोरावस्था की सखी कुसुम को देखकर सहयोगी सेवाकर्मी से कहती है- इस पागल को मेरे निवास पर भिजवा दो। हालांकि उपन्यासों में ऐसे दृश्य कमोबेश इसी अंदाज में पढ़े जा चुके हैं, लेकिन उन दृश्यों को संवेदना और अपनत्व प्रदर्शन में इतना प्रभावी अंकन यहां मिलता है। कुसुम नायिका को पीहर और ससुराल दोनों में लड़की या बहू की बेकदरी का वृतांत इस तरह सुनाती है कि कन्या संरक्षण की भावना स्वतः ही पाठकों के मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगती है। उपन्यास ‘दूजो छैड़ो’ में बालिका शिक्षा, नारी-जागरूकता, रुढ़ियों के खिलाफ मुट्ठियां तानने का आह्वान सहित बहुआयामी संदेश को निहित किए सफल उपन्यास है।
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