शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का कहानी संग्रह : ‘‘ मेटहु तात जनक परितापा’’

मेटहु तात जनक परितापा (राजस्थानी कहानी संग्रह) पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ संस्करण : 2012 / पृष्ठ : 112 / मूल्य : 80 रुपये / प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, एफ-77, सेक्टर- 9, रोड नं. 11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर 
पूर्ण शर्मा ‘पूरण’
जन्म : 01 जुलाई, 1966 रामगढ़ (हनुमानगढ़)
नई पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार। कविता-कहानी और अनुवाद के साथ विविध विधाओं में लेखन। दो राजस्थानी कहानी संग्रह प्रकाशित- ‘डौळ उडीकती माटी’ और ‘मेटहु तात जनक परितापा’। आपकी कहानियों के मारठी-अनुवाद दो संग्रह- ‘अेक सुपना चा अंत’ और ‘विखुरेलेले आकाश’ प्रकाशित हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास का आपने राजस्थानी अनुवाद ‘गोरा’ किया जो साहित्य अकादेमी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित एवं ‘साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कार’ से सम्मानित है।
संपर्क : प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, रामगढ़- 335504 (नोहर) हनुमानगढ़
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पुस्तक के ब्लर्ब का अनुवाद :
जीवन की तलाश में संघर्षशील पात्रों की कहानियां 
० श्याम जांगिड़, चिड़ावा (झुंझुनू)
    इन दिनों राजस्थानी कहानी के क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति के जिन कहानीकारों ने उसे आधुनिक और असरदार बनाने का बीड़ा उठा रखा है, उनमें पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का नाम बड़े उत्साह से लिया जाता है। ‘पूरण’ ने कहानी में अपना आना एक लम्बी तैयारी के साथ किया है। इनका पहला कहानी संग्रह इसी बात का साक्षी है। इस कहानी संग्रह की साहित्यिक जगत में खूब चर्चा रही है।
    ‘पूरण’ की भाषा जरा हटकर है, जो अपनी तरलता और सहजता के दम पाठक को बांधे रखती है। अपनी कहानी में अनुकूल भाषआ को ढूंढ़ लाना ही इन्हें औरों से अलग करता है। नित-नए शिल्पगत प्रयोग और उस पर भी कथारस को बनाए रख पाना, कोई इनसे सीखे। राजस्थानी कहानी को अन्य भारतीय भाषाओं की कहानी से जरा कदम आगे बनाए रखना इनकी कोशिस रही है। इसी कोशिस का परिणाम है संग्रह में आयी इनकी कहानी ‘सिमेंट की लड़की’। यह एक प्रतीकात्मक कहानी है, जो पात्रों की मनःस्थिति को प्रतीकों के माध्यम से उभारती है। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘मेटहु तात जनक परितापा’ भी इनके इसी प्रयोगात्मक तेवर को दर्शाती है।
    कहानीकार का यह दूसरा कहानी-संग्रह अपने भीतर कई बेजोड़ कहानियां समेट लाया है। ‘बाग चिड़िया और स्वप्न’, ‘आईना झूठ बोलता है’, ‘जोगन’, ‘मेटहु तात जनक परितापा’, ‘फिर वहीं जीना’, ‘सिमेंट की लड़की’, ‘मोर तूने खूब गाया’, ‘मैं जीना चाहता हूं’, आदि कहानियां खूबसूरत रचनाएं हैं। निश्चय ही ये रचनाएं राजस्थानी कहानी में अपना एक निश्चित स्थान पा सकेंगी।
    पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ के पात्र अपनी ही परिस्थितियों में उलझे पर संघर्षशील हैं। कहानीकार अपने यहां कथानक ही ऐसा उठाते हैं जहां विद्रोह की गुंजाइश न के बराबर रह जाती है। मतलब यह कि ऐसी परिस्थितियां जहां मन चहुं ओर से घिर जाता है। ऐसी स्थिति में कहानी के भीतर किसी कोने से रिस आयी संवेदनाओं का दर्द पाठक को बींध-बींध देता है। ‘जोगन’ कहानी इसका उदाहरण है। ‘जोगन’ की नायिका कैसे और किससे विद्रोह करे? एक-एक कर अपने सामने आती मुश्किलें उसके समूचे वजूद को ही लील जाती हैं। ठीक इसी तरह ‘मेटहु तात जनक परितापा’ एक ऐसे बेबस और बेचारे बाप की कहानी है, जो अपने प्रत्यक्ष दीखती बदनामी को भी आखिरकार अपना हित मान लेने को मजबूर है। माने यह कि इनके सभी पात्र अपनी अंतिम सांस तक जीवन की तलाश में संघर्षशील हैं।
    मुझे पूरा विश्वास है कि ‘पूरण’ का यह कहानी संग्रह पाठकों को भाएगा, साथ ही साहित्यिक जगत में भी सराहना पाएगा।
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राजस्थानी कहानी के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती कहानियां
० डॉ.मंगत बादल,रायसिंह नगर
      नई पीढ़ी के कहानीकारों में पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ एक जाना-पहचाना नाम है। ‘मेटहु तात जनक परितापा’ कहानी संग्रह इसका साक्ष्य है। इस संग्रह में उनकी पन्द्रह कहानियाँ हैं, जो अलग-अलग विषयों और भावभूमि पर रचित हैं। ‘बनवारी नै कुण मारियो’ एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। अपनी परम्पराओं और रूढ़ियों को मानने वाला बनवारी एक छोटी-सी बात से इतना आहत हो जाता है कि अन्त में वह अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर लेता है।‘बाग चिड़ी अर सपनो’ कहानी समाज में निरन्तर बढ़ती गुंडागर्दी को लेकर है। गुंडा तत्त्व लड़कियों को सरेआम छेड़ते हैं, उन पर तेजाब तक फेंक देते हैं लेकिन समाज में कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं होती।
‘आरसी झूठ बोलै’ कहानी में भारतीय नौकरशाही का पर्दाफास किया गया है कि देश में आँकड़ों की खेती किस प्रकार की जाती है? ‘कीं तो बाकी है’ कहानी इस बात की ओर संकेत करती है कि साम्प्रदायिक विद्वेष की जड़ों को कहीं न कहीं आर्थिक असमानता भी सिंचित करती है। ‘कर्फ्यू’ चाहे छोटा सा शब्द है किन्तु इसकी मार झेलने वाले जानते हैं कि यह कितना खतरनाक है। प्रतिदिन निरन्तर बढ़ती हुई असहिष्णुता जब साम्प्रदायिक दंगे का रूप धारण कर लेती है तो सामाजिक ढांचे को अस्त-व्यस्त कर देती है।
      ‘मेटहु तात जनक परितापा’ कहानी मातृविहीन पुत्री के विवाह योग्य होने पर होने पर बाप की चिन्ताओं को लेकर है। जाति-पाँति,समाज के रीति-रिवाजों और शास्त्रों को मानने वाले पंडित जी को जब बेटी की समीज की जेब में प्रेम-पत्र मिलता है तो वे एक तरह से आश्वस्त हो जाते हैं कि उनकी बेटी जो भी निर्णय लेगी वह ठीक होगा। ‘गोरू काको’ कहानी बतलाती है कि प्रत्येक व्यक्ति की पसन्द और प्रतिभा अलग-अलग होती है। सब को एक साथ हाँकना अत्याचार ही है। गोरू जैसे समाजसेवी और परोपकारी व्यक्ति को जब कोई विपरीत दिशा में हाँकना चाहेगा तो क्या परिणाम निकलेगा?‘तास री गट्टी’ एक मनोवैज्ञानिक कहानी है जब कि ‘जोगन’ औरत की पीड़ा और विवशता की कहानी है। इन्दरो का पति जब घर छोड़कर संन्यासी बन जाता है तो उसे घर की चारदीवारी के भीतर जो कुछ सहन करना पड़ता है वास्तव में वह उसे एक योगिनी ही बना देता है। यह एक अत्यन्त मार्मिक कहानी है। सांयत झील, फेर बठै ई जीणो,खिंडतो आभौ आदि प्रत्येक कहानी किसी न किसी सामाजिक समस्या का बड़ी सिद्दत से चित्रण करती है।
       ऊपर से छोटी और सामान्य दिखलाई पड़ने वाली घटनाएं कितनी मार्मिक हैं, इन कहानियों में चित्रित है। कहानियों की भाषा पाठक को अपनी रौ में बहा ले जानेमें सक्षम है। कहानियों की भाषा यथार्थ की परतें उधेड़ती हुई हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं। लेखक ने इन कहानियों में शिल्प के नये प्रयोग किये हैं, जो पाठक को प्रभावित और राजस्थानी कहानी के भविष्य के प्रति आश्वस्त करते हैं।
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मेटहु तात जनक परितापा....
० सतीश छिम्पा, सूरतगढ़

    "मेटहु तात जनक परितापा" पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का दूसरा कहानी संग्रह है। राजस्थानी कहानी में पुराने शिल्प के समानांतर एक नए शिल्प को उभारने वालों में पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ एक महत्वपूर्ण नाम है, इस संग्रह से पूर्व उनका 'डोळ उडीकती माटी' संग्रह प्रकाशित हो चुका है। मानवीय संवेदनाओं को स्वर देने और पात्रों को जीवन्त रूप प्रदान करने के ‘पूरण’ सिद्धहस्त कहानीकार हैं। उनके यहां उधार के सरोकारों की जगह भोगा हुआ यथार्थ है, या ऐसे भी कहा जा सकता है कि जो कुछ उनकी कहानियों में घटित होता है या कहानीकर मन द्वारा घटित करवाया जाता है वह रामगढ़,नोहर और भादरा की जमीन से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ प्रगट होता है।
    पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ की कहानियाँ सजीव पदार्थ की चेतना और उनसे जुडी संवेनाओं का मूर्त रूप है, कोरा, थोथा आदर्श और सामन्तवादी दृष्टिकोण उनके यहां नहीं है। किसी भी कहानीकार के लिए जरूरी है- लोक और चीजों के प्रति उसका अन्वेषी दृष्टिकोण हो, अगर वह एक निवारक खोजी की तरह वस्तुओं को नही देखता है तो उसका कहानीकार संदिग्ध है, खुशी है कि पूर्ण शर्मा  ‘पूरण’ के कहानीकार में उक्त आधार विशेषतः मौजूद है। ‘खिंडतो आभो’, ‘सिम्मट री छोरी’, ‘फेर बठैई जीणो’,  ‘गोरु काको’ कहानियां इसके बेहतर प्रमाण हैं।
    पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ की भाषा प्रभावित करती है, टिंच करती हुई टणकाटेदार जो पाठक को कहानी के बीच ऊब महसूस नहीं होने देती बल्कि उन्हें अंत तक बांधे रखती है।
    इस संग्रह की सभी कहानियों में पात्र आर्थिक और सामाजिक संघर्षों में इस भांति उलझे हैं कि उनकी जियाजूण और संघर्ष एकमेक से लगते हैं, यह लेखक की स्याणप ही है कि उसने अपने पात्रों को खुला न छोड़कर कुछ खांचों में बांध दिया है। प्रस्तुत कहानियों में बहुत जगहों पर कोरा, उबाऊ और बोझिल-सा दिखावटी आदर्शवाद भी सामने आता है, जो मनुष्य की मूल-प्रवृत्ति से एकदम उलटा है। "मोरिया आछो बोल्यो रै....." कहानी को सोच-समझकर रोमानियत का पुट दिया गया है, और औरत को कुछ ज्यादा ही ईमानदार बनाने की कोशिश में कहानीकार भावों की ठोकर खा गया और कहानी 'अजीब-सी' हो गयी।
    राजस्थानी कहानी में जिस तरीके से बदलाव आ रहा हैं उसे देखकर एक बेहतर भविष्य का सहज ही अंदाज़ा हो जाता है। पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ इस बदलाव के आधार कहानीकार माने जा सकते हैं।
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आधुनिक भाव-बोध की सबल कहानियां
० नवनीत पाण्डे, बीकानेर
राजस्थानी के चर्चित कथाकार पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का दूसरा कहानी संग्रह है- ‘मेटहु ताज जनक परितापा’। संग्रह का नाम जरूर कुछ भ्रमित करता है पर इसके पाठ के बाद सारे भ्रम दूर हो जाते हैं। संग्रह की कहानियों में आधुनिकताबोध का विकास परंपरा को आधार बनाते हुए किया गया है। पहली कहानी ‘बनवारी नै कुण मारियो’ से लेकर अंतिम कहानी ‘सांयत झील’ तक की सभी कहानियों में हमारे आस-पास की कहानियां होते हुए भी जो परिवेशगत नवीनता और पात्रों का जीवन को लेकर जो व्यवहार है वह रेखांकित किए जाने योग्य है। राजस्थानी भाषा में नवीन भाषिक प्रयोग जिन में पठनीयता को बचाते हुए काव्यात्मकता और भाषिक लय से जो अनुभव अभिव्यक्त होते हैं वे हमारे स्मृति में जैसे रच-बस जाते हैं। कथावस्तु के लिहाज से ‘मेटहु ताज जनक परितापा’ की कहानियों के पात्र नए नहीं है पर वे अपने ट्रीटमेंट, प्रस्तुतिकरण के लिहाज से मनमोहक है। ‘बनवारी नै कुण मारियो’ कहानी जहां रिस्तों में छिजती मानवी संवेदनाओं की परतें उघाड़ती है वहीं ‘बाग चीड़ी अर सुपनौ’ की सुनीता दीदी के बहाने कथाकार ने आज समाज में जवान होती युवा पीढ़ी में प्रेम के नाम पर हो रहे चरित्रिक और नैतिक पतन की विड़ंबनाओं को उजागर करती है।
‘सिम्मट री छोरी’ में बचपन से जवानी की दहलीज पर सपनों और प्रेम के सुंदर प्रतीक जिस ढंग से प्रयुक्त किए गए हैं वे सब इतने व्यवस्थित है कि बिना कौशल के यह असंभव था। ‘मोरिया आछौ बोल्यौ रै...’ में रेवड़ चराने वाला और मीठे गीत गाने वाला बाजीगर मनीराम उर्फ मनियौ के प्रेम और विवाह संबंधों की अनूठी त्रासदी चित्रित हुई है। धन की सत्ता से मानवीय संबंधों यहां तक कि कुंवारापन उतारने तक की चेष्टा अपने संश्लिष्ट रूप में बहुत करीने से कहानी में अभिव्यक्त हुई है।
‘कीं तौ बाकी है’ कहानी में एक तरफ बुखार से पीड़ित अन्नू, अनवर की पत्नी, बूढ़ी मां है तो दूसरी तरफ गांव में फैली बीमारी री विड़रूपता। अन्य समुदाय को सांप्रदायिक सोच और दंगै के कारण मानने समझने वाले और तनाव की आग में जलते गांव में कर्फ्यू के हालात मार्मिक है। कहानी में जीवंतता ऐसी उजागर होती है जैसे कि कहानी हमारे सामने घटित हो रही है।
शीर्षक कहानी ‘मेटहु तात जनक परितापा’ एक पिता की पीड़ा का दस्तावेज है। विवाह योग्य बेटी के विवाह नहीं हो सकने का तनाव है उसी बीच उसका लव लैटर और कहानी का टर्न अविस्मरणीय है।
‘मेटहु तात जनक परितापा’ की 15 कहानियां जैसे 15 रंग लिए हुए है। कुंवारा जोगी, गौरु काका, बाजीगर मनीराम, राजिंदर जैसे चरित्र कहानीकार पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ ने अपने आस-पास से चुने हैं। ये चरित्र मानवीय संबंधों के बनते-बिगड़ते विभिन्न ग्राफ को प्रस्तुत करते हुए अपने देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। यही इन कहानियों का सबल पक्ष है।
पूर्ण शर्मा के यहां यर्थाथ, परिपक्व भाषा, शिल्प और बुनावट के कौशल से कथा साहित्य में एक स्थाई उपस्थिति दर्ज कराते हैं। चरित्रों की मनोदशा को दर्शाने में कहीं कहीं विस्तार अनावश्यक भी लगता है किंतु समग्र प्रभाव में ये कहानियां अपना स्थाई असर पाठकों पर छोड़ती है।
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 आधुनिक कथा-जगत का एक रुपहला पन्ना
० जितेंद्र निर्मोही, कोटा
राजस्थानी साहित्य का कथा जगत ‘विश्रांत प्रवासी’ से प्रारंभ होकर आज जिस आधुनिक भावबोध की भूमि पर खड़ा है, उसे विद्वान जानते हैं। आधुनिक कहानीकारों में पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ एक जाना-पहचाना नाम है। उनकी कथा-यात्रा ‘डील उडकती माटी’ से प्रारंभ होकर रवां होती है और आगे चलकर उनकी कहानियों के अनुवाद मराठी, पंजाबी, मलयालम, हिन्दी आदि भाषाओं में होने लगते हैं। वे स्वयं अनुवाद के क्षेत्र में साहित्य अकादमी नई दिल्ली से राजस्थानी में पुरस्कृत किए गए हैं। साहित्य की अहर्निस यात्रा उन्हें पहचान दिलाती है और उन्हें राजस्थानी भाषा के दूसरे कहानी-संग्रह ‘मेटहू तात जनक परितापा’ पर प्रतिष्ठित पुरस्कार स्व. गोरी शंकर कमलेश स्मृति राजस्थानी भाषा पुरस्कार एवं सम्मान वर्ष 2016 प्राप्त होता है। हनुमानगढ़-गंगानगर क्षेत्र से एक ऐसी खुशबू साहित्य जगत में दिखाई दे रही है, जैसी किसी समय बंगाल की धरती से देखी जाती थी जिसने कई श्रेष्ठ कथाकार दिए थे। भरत ओला, मंगत बादल, रामस्वरूप किसान, डा. सत्यनारायण सोनी आदि इसी धरा के कहानीकार हैं।
    सच कहा जाए तो पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ आधुनिक कथा-जगत का एक रुपहला पन्ना है। साहित्यकार श्याम जांगिड़ लिखते हैं- ‘पूरण की भाषा निराली है, वे पाठकों को अपनी बारीक और सुंदर-सुगठित भाषा से बांध लेते हैं। कथा अनुकूल भाषा प्रयुक्त करना उनकी विशेषता है।’ सच कहूं तो वे प्रयोगधर्मी कहानीकार हैं जो आधुनिक जगत में कथा के नाते सूत्र तलाश करते दिखाई देते हैं। इसीलिए उनकी प्रतिकार कथाएं भी पहचान पाती है। इस कृति में जमाने और अपने परिवार के परिवेश से जूझता किसान है। जो आत्महत्या करने को मजबूर हैं, समाज से पीड़ित दलित मजदूर हैं, खूबसूरत लड़कियों का तेजाब से झुलसना, किसानों की फसल पर मौसम की मार, आदमी पर बाजार की मार, पोंगा पंथी रुढ़िवादिता पर चोट उनकी कहानियों में देखी जा सकती है।
    पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का कहानीकार रुग्ण सामाजिक मानसिकता के साथ अपना कथा मनोविज्ञान जोड़ कर एक कहानी ‘बनवारी नै कुण मारियो’ से सवाल प्रस्तुत करते देख सकते हैं। हमारे सामाजिक सरोकार उनकी कहानियों में उनके गांव के भौगोलिक परिवेश के साथ देखे जा सकते हैं। उनके यहां टिब्बे हैं, रुंख हैं, बी.पी.एल. का मजदूर हैं, अपनी अस्मत बचाती किशोरी है, फसलों से जूझता किसान आदि है। वे ग्रामीण संवेदनशील लेखक के साथ साथ मन से दार्शनिक भी है।
    उनके कथ्य शानदार है, वे अपनी भाषा के साथ अपना निजी शिल्प खड़ा करते हैं। इसलिए वे ग्रामीन जन जीवन और राजस्थान की मिट्टी से जुड़े कहानीकार हैं। जिस कहानीकारों को बातें बनानी नहीं आती जो कोई मुहवारा गढ़ना नहीं जानते, वहीं ऐसा सीधा-साधा कथ्य प्रस्तुत कर सकता है। पूरण शर्मा ‘पूरण’ ऐसे ही कहानीकार हैं। उनके जैसी कहानियां ए.सी. में बैठकर नहीं लिखी जा सकती।
    राजस्थानी भाषा में हरियाणवी ठसका है, पंजाबी लहजा, झिलमिल-झिलमिल हंसी के मध्य झरझर झरते नैन, खास बात तो यह है वे मजदूर वर्ग किसान की भाषा जानते हैं। इन पंद्रह कहानियों में दुखांत ज्यादा है, सुखांत कम। अस्तु ‘मेटहु नाथ जनक परितापा’ शीर्षक भी सार्थक होता है। संग्रह आम जन की पीड़ा को चित्रित करने के साथ सामाजिक सरोकारों के प्रति भी सावचेत करता है। इन कहानियों से वे राजस्थानी कहानी में नई पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षर सिद्ध होते हैं।      
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डूबकर तैरने को मजबूर करती कहानियां
० ओमप्रकाश सिंघाठिया, रामगढ़ (हनुमानगढ़)
राजस्थानी भाषा साहित्य में आधुनिक राजस्थानी कहानीकार के रूप में पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है। पूरण की कहानियां अपने आसपास की घटनाओं को इस कदर सूक्ष्मावलोकन करती दिखती हैं कि वे अपने समय का ही नहीं बल्कि आने वाले समय का भी सच हो जाती हैं। उनकी कहानियों में भाषा की तारतम्यता बनी रहती है। पाठक को पता ही नहीं चल पाता और वह कथा रस में डूबा कथा के साथ-साथ ही आगे बढ़ने लगता है। भाषा में सरल शब्दों के साथ नए प्रयोगों को प्रस्तुत कर पाना संग्रह की भाषा में चार चांद लगाता है।
    संग्रह की प्रत्येक कहानी जहां यथार्थ की ऊपरी सतह को परिलक्षित करती चलती है वहीं उसके भीतर बहते चीन्हे-से सच को भी प्रकट करती दिखती है। कथा संग्रह का शीर्षक ‘मेटहु तात जनक परितापा’ एकबारगी तो हिन्दीनिष्ठ और विचलित करने वाला प्रतीत होता है, पर पूरा संग्रह पढ़ने पर यही शीर्षक सटीक लगता है। कहानी ‘बनवारी नै कुण मारियो’ से लेकर ‘सांयत झील’ तक हर कहानी पाठक को कथारस में ऊभचूभ रखती है। पाठक कहानी के सांकेतिक और मार्मिक यथार्थ को अपने ढंग से आत्मसात कर सके इसके लिए शब्दों की सरलता और सहजता मायने रखती है। शब्दों को दिखावटी परिधान और लबादों से अलग रख पाना कोई ‘पूरण’ से सीखे। सीधे मर्म पर चोट करती संग्रह की भाषा इसकी उपलब्धि है। पाठक कथा को सहजता से समझ सकता है, वह कहानी में प्रवहित विचार और यथार्थ को अपनी बुद्धि और समझ से संश्लेशित-विश्लेशित कर सकता है, यह बड़ी बात है।
‘पूरण’ की कहानियां अपने समय का सच उजागर करती बेखौफ कहानियां हैं। वे समय के मैदान में डरी-सिकुड़ी और किसी अबला की तरह नहीं बल्कि अपनी पूरी तैयारी और तेवर के साथ उतरी दिखती हैं। कहानी ‘सिमट री छोरी’ में जवानी के सपनों को प्रेम के साथ सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है। कहानी ‘मोरिया आछौ बोल्यौ रै’ में मनीराम की विडम्बना के साथ-साथ आज के समय के जिस को उजागर किया गया है वह बहुत भयानक है, .... ’  बावळा मंझ टिपग्यौ। इब किण री उडीक करै ?  थूं सोचतौ हुयसी रिस्तौ चालनै आयसी। वै दिन लदग्या। छोरियां नै तौ मसीनां खायगी। आखी झ्यान मांय टोटौ आयरियो है। तीस-तीस साल रा कूंगर फिरै इयां ई।’
 कहानी ‘कीं तो बाकी है’ में धर्म और जातिगत-सामाजिक पीड़ा को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है वहीं कहानी ‘मेटहु तात जनक परितापा’ समाज में आधुनिक समस्या का जीवंत चित्रण है। इसी प्रकार अन्य कहानियां ‘गोरू काको’, ‘‘माटी री आंख्यां’, ‘जोगण’, ‘म्हैं जीणौ चावूं’, ‘‘फेर बैठैई जीणौ’ आदि अलग-अलग रंग और विभिन्नता लिए मगर यथार्थ को चित्रित करती कहानियां है जो अपने कथा रस में पाठक को डूबकर तैरने को मजबूर करती हैं।
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मानवीय संवेदनाओं का दस्तावेज  कहानियां
अशोक शर्मा, भीलवाड़ा
पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का कहानी संग्रह ‘मेटहु तात जनक परितापा’ मानवीय संवेदनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। मानव मन की अंतर्व्यथा व भीतरी हलचल को उकेरा गया है। इसमें वर्तमान समय के भीतर बसे द्वद्व और जटिल संवेदनाएं सहज सरल भाषा में उजागर होना अपने आप में विशिष्ट है।
कहानी ‘बनवारी नै कुण मारियो’ में मानवीय गरिमा, स्वाभिमान और अन्तर्मन के दरकने का सजीव चित्रण है। कहानी में आदमी के बिखरने की व्यथा कथा शब्द-दर-शब्द सजीव होती चली जाती है।
कहानी ‘तास री गट्टी’ के माध्यम से गत दशकों के जीवन की झांकी, गली-गुवाड़ की गुरबत और देहाती जीवन के मनोरंजन के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि आदमी घर की देहरी के भीतर बहुत कुछ सहन करता जाता है मगर देहरी के बाहर वही बात उसके अहम को चोट मारती है और वह ताशा के पत्तों की नांई बिखर जाता है। जब कहानी की पात्र ‘काकी’ ताश खेलते लोगों के बीच कचरा लाकर डाल देती है तो ताश के साथ-साथ कथा नायक ‘काका’ भी जैसे बिखर जाता है। यह कहानी मानवीय मन का अफसोस व पश्चाताप सहजता से प्रकट करती है। कहानी के अंत में काकी का ताश की नई गड्डी लाकर देना पानी में शहद की तरह घुल जाने जैसा प्रतीत होता है।
कहानी ‘सांयत झील’ के माध्यम से जहां एक तरफ लिंगानुपात बिगड़ने से पैदा हुई वर्तमान ज्वलंत समस्या को उजागर किया गया है वहीं दूसरी ओर एक बुजुर्ग महिला ‘दादी’ का अपने बच्चों के प्रति अनुराग व अपनत्व का स्वाभाविक चित्रण देखा जा सकता है।
संग्रह की भाषा-शैली व संवाद-योजना परिवेशगत व पात्रोनुकूल है। सहजता से प्रयुक्त प्रतीक-बिंबों ने पात्रों के अन्तर्मन की हलचल व भावों को सजीव तथा बोधगम्य कर दिया है। मिसाल के तौर पर ‘बनवारी नै कुण मारियो’ कहानी में ‘... पण भीतर पाटेड़ौ होवै जद कारी कद लागै?’ ‘कानां सुण्या बोल काळजै जमग्या।” पड़्यां-पड़्यां डील रौ वजन बधै हौ ... स्यात भीतर रौ ई।’ .......इसी तरह कहानी ‘तास री गट्टी’ में भी ‘उण री मुळक मांय ई मांय ढुळी...’ और ‘काकी री गळगळी आंख्यां मांय तास री नूंवीं गट्टी तिरै ही’ जैसे वाक्यों में सूक्ष्म अनुभूतियों और संवेदना को बड़ी कारीगरी से गढ़ा गया है।
कहना होगा कि इस संग्रह की प्रत्येक कहानी वर्तमान जीवन और गांव-देहात की आंतरिक समस्याओं को किसी प्रश्न की तरह प्रस्तुत करती है तो साथ ही जैसे समाधान के लिए भी मौन संकेत भी यहां दिखई देते हैं।
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भाव, भाषा और शिल्प का अनूठा कहानीकार 
० डॉ. नीरज दइया, बीकानेर
समकालीन राजस्थानी कहानी में जिन नए हस्ताक्षरों ने कहानी का मान बढ़ाया है उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का है। इसके प्रमाण में उनका दूसरा कहानी संग्रह “मेटहु तात जनक परितापा’ देखा जा सकता है। यहां किसी लड़की पर तेजाब फेका जाना, लड़कियों को जन्म से पहले मारना, लिंगानुपात, असमाजिक तत्व, गुंडागर्दी, पर्यावरण और पेड़ आदि अनेक नए घटक राजस्थानी कहानी में जुड़ते हैं।
शीर्षक कहानी में कहानीकार जैसे धर्म को किसी बंधन से मुक्त कर मनुष्यता के मर्म को समझता है। इसे पढ़ते हुए हिंदी के प्रख्यात कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानियों का स्मरण होता है। जिन में वर्मा पात्रों के साथ साथ उनके आस-पास की दुनिया को भी जीवंत करते थे। यहां भी पिता और पुत्री की कहानी में पिता की चिंता बेटी है और बेटी के चिंतन में आधुनिकता का रंग। प्रेम-पत्र के माध्यम से कहानीकार द्वंद्व रचता है जिसमें हिंदूं और पंडित पिता के सपनों का रंग कहानीकार राजा जनक और सीता के संदर्भों तक ले जाता है। जाति और धर्म से परे कहानी में नए मूल्यों को स्वीकार करने की स्थितियां प्रभावित करती है।
देश की वर्तमान समस्याओं का स्पर्श करती पूर्ण शर्मा की कहानियां मानवता का पाठ पढ़ाती है। हमारे प्रेम और भाईचारे का इन कहानियों में सकारात्मक पक्ष संजोया गया है। सामाजिक और जातिय असमानता को प्रगट करती कहानी ‘फेर बठैई जीणौ’ इसका उदाहरण है। ‘खिंडतौ आभौ’ कहानी का सरपंच जमीन हड़पने के लिए मंदिर बनावाने की चाल खेलता है। खिलाफत करने वाला वह असमाजिक तत्वों की जोर जबरदस्ती और गुंडागर्दी की हद तक पहुंचना वर्तमान यथार्थ है। पुरखों की जमीन का मोह और इज्जतदार आदमी का द्वंद्व और आस्थाओं का चित्रण प्रभावित करता है।
‘मोरिया आछो बोल्यौ रे’ कहानी लोक संस्कृति के रंग रंगी मनीराम जैसे रेवड़ चाराने वाले के जीवन के चार सुनहरे पृष्ठों की बानगी है। एकदम नई जमीन को स्पर्श करती यह कहानी मां-बेटे के सपनों की कहानी है। बेटी के विवाह का सपना लिए मां संसार छोड़ कर चली गई। और अंततः जब मां का सपना साकार हुआ मगर वह सपने जितना ही सुख हिस्से में था। एक औरत की मार्मिक कहानी से यह कहानी अविस्मरणीय बन सकी है। इसी प्रकार ‘सांयत झील’ कहानी में भी विवाह से जुड़ी वर्तमान संदर्भों की समस्या है।
पूरण की अधिकांश कहानियां पूर्वदीप्ति में छोटे काल खंड के भीतर अपने विगत को लिए वर्तमान को अर्थवत्ता प्रदान करती है। वे पर्यावरण जैसी महत्त्वपूर्ण विषय को जिस भांति कहानी ‘सिम्मट री छोरी’ और ‘बाग चिड़ी अर सुपनौ’ में लेकर आते हैं वह अपने आप में अनूठा है। कहानी अपनी भाषा, प्रयोग और प्रतीकों द्वारा न केवल प्रकृति से हमारी रागात्मकता बढ़ाती है वरन राजस्थानी कहानी की रागात्मकता भी बढ़ाने वाली है। ‘आरसी झूठ बोलै’ कहानी न केवल पी.एच.सी. के कर्मचारियों वरन सभी कर्मचारियों की कहानी इस लिए भी कही जाएगी कि सभी जगह इसी प्रकार के और इस के मिलते जुलते घटना प्रसंग हम देखते-सुनते हैं। ‘बनवारी नैं कुण मारियौ’ कहानी की मार्मिकता प्रभावित करती है कि जरा सी बात न जाने कहां किस स्थल पर चोट कर दे और फिर वह अमिट घाव कहानी में वर्णित स्थितियां भी ला सकता है। ‘तास री गट्टी’ कहानी पढ़ते हुए राजस्थानी के प्रख्यात कहानीकार करणीदान बारहठ की कहानी ‘थे बारै जावो’ का स्मरण होता है। किसी रचना का इस भांति अपनी परंपरा में जुड़ना और विगत भावभूमि का स्मरण होना केवल साम्य नहीं वरन उस शक्ति का प्रवाह है जिससे राजस्थानी कहानी ने विकास यात्रा की है।
भाव, भाषा और शिल्प का अनूठा कहानीकार पूरण अपने इस संग्रह से राजस्थानी कहानी को बहुत आगे ले गया है और निश्चय ही इससे उम्मीदें बढ़ी है कि राजस्थानी कहानी को भारतीय कहानी के प्रागंण में रेखांकित किया जा सकेगा।
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वक्त के साथ कदमताल करती कहानियां
मदन गोपाल लढ़ा, लूनकरनसर (बीकानेर)

    वक्त के साथ कहानी ने रूप-रंग बदला है। आज की कहानी में न तो घटनाओं की भीड़ जरूरी है, न ही कथानक का वर्णन-विस्तार। परिवेश का बारीकी से अंकन समकालीन कहानी की मुख्य प्रवृत्ति है। कथ्य के साथ अब शिल्प का महत्व बढ़ गया है। परिवेश को रचते हुए कहानीकार पात्रों की मनगत को सूक्ष्मता से अंकित करने में अपने कथा-कौशल का उपयोग करते दिखाई देते हैं। पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ की राजस्थानी कहानियों में कहानी के इस बदलते मिजाज को स्पष्ट देखा जा सकता है।
    पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ के दूसरे कहानी-संग्रह ‘मेटहु तात जनक परितापा’ की कहानियां कई मायनों में राजस्थानी कहानी के परंपरागत ढांचे को तोड़कर उसे इक्कीसवीं सदी का तेवर प्रदान करती है। राजस्थानी कहानी को भारतीय भाषाओं की समकालीन कहानी के बराबर खड़ी करने के लिहाज से ऐसे प्रयास जरूरी है। पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का कहानी रचने का अपना निजी मुहावरा है। कहानी रचने के लिए जिस धीरज की जरूरत होती है वह ‘पूरण’ ने सतत साधना से अर्जित किया है। शिल्प के प्रति सावचेती उनका सबल पक्ष है।
    शीर्षक कहानी ‘मेटहु तात जनक परितापा’ स्त्री मन की व्याकुलता, पिता की विवषता के साथ सामाजिक परिवर्तन को सूक्ष्मता से प्रकाषित करती है। रेवा के प्रेम के प्रति पिता की मौन स्वीकृति अनायास नहीं मिली है बल्कि उसके पीछे समाज का ताना-बाना व वैवाहिक रिवाज बड़ा कारण रहे हैं।
    ‘म्हैं जीणौ चावूं’ धरती के अन्नदाता की चिंताओं व जूझ को सामने लाने वाली सशक्त कहानी है। विकास के लम्बे-चौड़े दावों के बीच किसान-मजदूर तबके के बदतर हालात व्यवस्था की असलियत उजागर कर रहे हैं। यह वाकई त्रासद है कि महंगाई व कर्ज के बोझ तले दबे किसानों को अपघात जैसा कदम उठाना पड़ रहा है। कथानायक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि हाडतोड़ मेहनत के बावजूद कमेरा वर्ग दो जून की रोटी मुष्किल से जुटा पाता है। आलोच्य संग्रह में ‘सिम्मट री छोरी’ कहानी शिल्पगत प्रयोग का उल्लेखनीय उदाहरण है। प्रतीकों के माध्यम से आगे बढती यह कहानी प्रकृति, प्रीत व स्त्री जीवन के खुरदरे यथार्थ से रू-ब-रू करवाती है। डिटेलिंग इस कहानी की अन्यतम विषेषता है जो कई अन्य कहानियों में भी ध्यान खींचती है। बानगी देखिए- ‘दरखत री टोगी माथै इब फूल मावता कोनी। पानकौ-पानकौ जाणै फूल हुयग्यौ हो। छोरी बैंच माथै बैठी मुळकती रैवती। दरखत आपरी टोगी सूं फूल झाड़तो जावतौ। जियां-जियां दरखत आपरी टोगी सूं फूल झारतौ, छोरी री आंख्यां रो मून झरतो जावतौ।’
    बाग चीड़ी अर सुपनौ, जोगण, सायंत झील, आरसी झूठ बोलै सहित संग्रह की अन्य कहानियां भी हमारे इर्द-गिर्द के जीवन के विविध रंगों को कहानी के वस्तु-विन्यास में सामने लाती है। इन कहानियों की विषय वस्तु हमारी जानी-पहचानी है मगर कहानीकार का कौशल पाठक को संवेदित कर उसके अनुभव संसार को समृद्ध बना देता है। मरुधरा का जीवन पूरण की कहानियों में पूरी मुखरता से व्यक्त हुआ है। उनकी कहानियों के पात्र जीवट से भरपूर हैं। संघर्ष का यह जज्बा निश्चय ही यहां की मिट्टी से मिला है। अलबत्ता कभी-कभार ऐसा भी लगता है कि पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ का कहानीकार नए विषयों के मोह में स्वाभाविकता खो बैठता है मगर ऐसा अक्सर नहीं होता। बहरहाल इसमें दोराय नहीं है कि पूर्ण शर्मा ‘पूर्ण’ राजस्थानी कहानी की बड़ी संभावना का एक विश्वसनीय नाम है।
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भाषा, भाव और शिल्प की दृष्टि से नए तेवर
० राजूराम बिजारणियां, लूनकरनसर (बीकानेर)

    राजस्थानी साहित्य को समृद्ध बनाने में कितने ही रचनाधर्मी धैर्य के साथ लगे हुए हैं। पद्य और गद्य में लेखन करने वालों की इस भाषा में कमी नहीं है। गद्य साहित्य में कहानी विधा पर सधी गति से काम हुआ और हो रहा है, जिसे भारतीय कहानी के प्रांगण में गर्व के साथ रखा जा सकता है।
राजस्थानी कहानी को 'हरियल' करने वाले ऊपरी पायदान पर जिन कहानीकारों को समकालीन कहानी के लिए अदब के साथ याद किया जा सकता है, उनमें निश्चित रूप से एक नाम पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ है। अपने पहले कहानी संग्रह 'डौळ उडीकती माटी' से साहित्यिक गलियारे की चर्चाओं का हिस्सा बनने में सफल रहे पूर्ण शर्मा 'पूरण' का दूसरा कहानी संग्रह 'मेटहु तात जनक परितापा' अपनी भाषा, भाव-सौंदर्य और शिल्प-सौष्टव की दृष्टि से नए तेवर लिए हुए है। नारी मन की अतल संवेदनाएं, पग-पग पर बिखराव की चिंताएं, दरकते संबंधों से उपजी पीड़ाएं, गांव, हथाई, गवाड़, गलियारों के बदलते मायनों के अनूठे नोट्स समेटे इस संग्रह की कहानियों को कसौटी पर कसें तो यह सफलता की कहानी बयां करता है।
समकालीन कहानी में हम देखते हैं कि कहीं-कहीं अनावश्यक विस्तार और वर्णन से कहानियों में बिखराव की स्थितियां भी बनती है, परंतु इस संग्रह में 'पूरण' की खूबसूरती यह है कि वे कहीं भी विस्तार को हावी नहीं होने देते। कहानी 'सिम्मट री छोरी' प्रतीकों के बेहतरीन प्रयोग की कहानी है। जो किसी भी स्तर पर अपने आप को बेहतर से बेहतर साबित करने में सक्षम है। समय और संदर्भों को समझते हुए कहानीकार पाठकों की नब्ज़ को पहचानने में सफल हुआ है। यही कारण है संग्रह की सभी कहानियां भाषा-भाव के स्तर पर पाठक के साथ सरलता से जुड़ती है। 'बाग, चिड़ी अर सपनो' कहानी समाज के विकराल चेहरे को बेनकाब करने के साथ नारी की अपने ही समाज में सुरक्षा को लेकर सवाल खड़ा करती चिंताओं को उकेरती है। 'कीं तौ बाकी है' कहानी सांप्रदायिकता एवं आर्थिक असमानताओं को जोड़ने वाली कड़ियों को खोलने का प्रयास करती है। वहीं कहानी 'तास री गट्टी' मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने को मजबूर करती है।
संग्रह की शीर्षक कहानी में उम्र के साथ बड़ी होती बेटी की चिंताओं का रेखांकन एक पिता की जिम्मेदारियों के बीच कुशलता से किया गया है। यह कहानी पूरी होते-होते धर्म के बंधन खोल मानव मन की मर्मस्पर्शी परतों को आहिस्ता से उघाड़ देती है। कहानीकार मर्म तक पहुंचने वाले कुशल चितेरे हैं, जो संवेदना की कड़ियों के सहारे भीतर तक उतरने में सफल रहते हैं। कहानीकार ने जिस यथार्थ को महसूस किया, खुद जिया वह उससे गुजरते हुए आसपास की चिंताओं को अंगीकार करता है। प्रत्येक कहानी की रंगत अलग है, यहां भाषाई नवीनता और प्रयोग है जो पात्रों की चिंताओं, पीड़ाओं और सवालों से प्रत्येक पाठक को साझा करती है। जिस इलाके में पूर्ण शर्मा ‘पूरन’ रहते हैं, वह इलाका पंजाबी और हरियाणवी परिवेश से भी सरोकार रखता है। इस परिवेश की ताक-झांक के बीच कहानीकार शर्मा राजस्थानी भाषा की कहानी यात्रा को पूरी सिद्दत के साथ संभालते, संवारते आगे बढ़ते हैं। इन कहानियों के हिंदी, मराठी और इतर भाषाओं में अनुवाद 'पूरण' को सशक्त कहानीकार के रूप में पहचान दिलवाता है।
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मन-मथने वाली कहानियां 
० बुलाकी शर्मा, बीकानेर

राजस्थानी के युवा कहानीकारों में पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ अपनी खास अलहदा पहचान बनाए हुए कहानीकार हैं। ‘मेटहु तात जनक परितापा’ संग्रह की कहानियों पाठकों को लंबे समय तक विचलित करने वाली है। कहानी-पात्रों की स्थितियों-परिस्थितियों पर पाठक भरे मन से सोचता रहता है- ऐसा क्यों हुआ, ऐसी स्थितियों से कब मुक्ति मिलेगी, कैसे मिलेगी? कहानी-पात्रों की आंतरिक पीड़ा, व्यथा-संत्रास से वह उबर नहीं पाता।
    पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ कहानी में एक-एक क्षण को जैसे सजीव करते चलते हैं। यहां सूरज, चांद, आकाश, पेड़-पौधे, निर्जीव घर तक आ उपस्थित होते हैं सजीव पात्रों के रूप में। यह उनकी शैल्पिक कलाकारी है। बहुत ही सधी हुई, चित्रात्मक भाषा। इस संग्रह में शामिल सभी 15 कहानियां हमें ऐसे संसार से साक्षात कराती है, जहां परिस्थितियां मन को छलनी कर रही है, सपने खंड-खंड हो रहे हैं, स्त्री हो अथवा पुरुष सब ही अंदर से टूटे हुए हैं, वे मार्ग ढूंढ रहे हैं किंतु मिल नहीं पा रहा है। पहले शीर्षक कहानी ‘मेटहु तात जनक परितापा’ की बात करें। कितना विवश है बाप अपनी युवा होती पुत्री रेवा को देखकर। विवाह की उम्र ढलती छब्बीस साल की रेवा की ओर झांकते उसके मन में भय समा जाता है। कहानीकार ने असहाय बाप की व्यथा को मार्मिकता दी है। रेवा किसी से प्रेम करने लगे तो बाप को शुकून ही होगा कि चलो, उसे अपना रास्ता स्वयं तय कर लिया। कब तक वह अपनी शादी की प्रतीक्षा करे? किंतु ‘जोगण’ कहानी की इंदरो कहां जाए, किससे अपना दर्द साझा करे, जब घर में ही उसका देह और मन शोषित हो रहा है। उसका पति जोगी उसको अखंड कुंवारी रखे ही घर छोड़ गया, देवर गोपी से ‘चूडी’ पहनी किंतु गोपी ने उसे छुआ ही नहीं, फिर कैसा पति। और श्वसुर रूपे ने उसके साथ जबरजन्ना किया, फिर भी दोषी औरत ही? औरत की विवश्ता और पुरुष की ज्यादती। इस नंगे सच को कहानीकार ने इन शब्दों में सामने रखा है- ‘एक मरद दूजै मरद रा खोट कद देखै। उणरौ हरेक वार तो लुगाई माथै हुवै।’ (पृष्ठ-62) फिर भी औरतें गोपी और रूपे की मौत पर इंदरो को रोने के लिए जबरदस्ती करती है। क्या ये गोपी और रूपे के चाल-चलन से अपरिचित है? इंदरो के संत्रास को क्यों नहीं महसूसती औरतें ही? पाठक बुरी तरह से विचलित हो जाता है इंदरो के दर्द से।
    ‘बाग चीड़ी अर सुपनो’ कहानी की दीदी, जो चिड़िया की तरह फुदकती साइकिल के पीछे नन्ही चुन्नी को बिठाए कॉलेज जाती-आती थी... कितने सपने संजो रखे थे उसने.... उसको लेकर नन्ही मासूम चुन्नी ने उसने छेड़खानी करनेवाले युवक को थप्पड़ मारा और उसके मुंह-शरीर पर तेजाब फैंक दिया युवकों ने.... । कहां सुरक्षित है औरत? कब साकार होंगे औरत के सपने? औरत ही क्यों, पुरुष के सपने भी कब पूरे होते हैं। यही तो जीवन की त्रासदी है। पूर्ण शर्मा मानव मन के कुशल पारखी हैं। छोटी-सी बात भी स्वाभिमानी पुरुष के लिए मृत्यु का कारण बन सकती है, यह उनकी कहानी ‘बनवारी ने कुण मारियो’ में देख सकते हैं। सच में पूर्ण शर्मा का कहानी-संसार हमें गहरे तईं मन को मथने वाला है। उनको पढ़ते हुए मेरी स्मृति में जैनेंद्र, इलाचंद जोशी की कहानियां आने लगती है। मनोविश्लेषन-मनोवैज्ञानिक घरातल पर अलग कहानी-संसार है उनका।
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पुस्तक मेले 2018 में

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राजस्थानी कहानी का वर्तमान ० डॉ. नीरज दइया
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