मंगलवार, 16 अगस्त 2016

डॉ. नंदकिशोर आचार्य की चयनित हिंदी कविताओं का राजस्थानी अनुवाद


पुस्तक : ऊंडै अंधारै कठैई / विधा : अनुवाद (काव्य) मूल : नंदकिशोर आचार्य (हिंदी) / अनुवाद : नीरज दइया (राजस्थानी) संस्करण : 2016, प्रथम / पृष्ठ : 120, मूल्य : 200/- प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334005
मूल कवि : डॉ. नंदकिशोर आचार्य
जन्म : 31 अगस्त 1945, बीकानेर (राजस्थान)
कविता संग्रह : जल है जहाँ, शब्द भूले हुए, वह एक समुद्र था, आती है जैसे मृत्यु, कविता में नहीं है जो, रेत राग, अन्य होते हुए, चाँद आकाश गाता है, उड़ना संभव करता आकाश, गाना चाहता पतझड़, केवल एक पत्ती ने, चौथा सप्तक (संपादक : अज्ञेय) आलोचना, नाटक व अन्य विधाओं में अनेक पुस्तकें प्रकाशित। मीरा पुरस्कार, बिहारी पुरस्कार, भुवनेश्वर पुरस्कार, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित। अहिंसा-विश्वकोश चर्चित।
संपर्क : सुथारों की बड़ी गुवाड़, बीकानेर - 334 005 (राजस्थान)
अनुवादक : डॉ. नीरज दइया 
जन्म : 22 सितम्बर 1968, रतनगढ़ (चूरू)

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (हिंदी) साख, देसूंटो, पाछो कुण आसी (राजस्थानी) जादू रो पेन (बाल कथाएं) आलोचना रै आंगणै, बिना हासलपाई (आलोचना) 24 भारतीय भाषाओं के कवियों की कविताओं का अनुवाद ‘सबद-नाद’ के साथ निर्मल वर्मा, अमृत प्रीतम, भोलाभाई पटेल, मोहन आलोक की कृतियों का अनुवाद। बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादेमी एवं अनुवाद के लिए प्रांतीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार। ‘नेगचार’, ‘जागती जोत’ आदि पत्रिकाओं का संपादन। 
संपर्क : सी-107, वल्लभ गार्डन, पवनपुरी, बीकानेर - 334 003 (राजस्थान)
पुस्तक के ब्लर्ब का अनुवाद :
अनूदित साहित्य का एक गौरव-ग्रंथ 
 ०  मोहन आलोक, श्रीगंगानगर
    ‘चौथा सप्तक’ के ख्यातिप्राप्त हिन्दी कवि नन्दकिशोर आचार्य की अब तक प्रकाशित 14 काव्य पुस्तकों से चयनित कविताओं का यह महत्त्वपूर्ण अनुवाद ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ जहां डॉ. नीरज दइया की एक बेहतरीन उपलब्धि है, वहीं मातृभाषा में अनूदित साहित्य का भी एक गौरव-ग्रंथ है।
    डॉ. दइया जैसे अग्रणी आधुनिक कवि के, गहन अंधकार कहीं, पहुंचने का अहसास आचार्य जी जैसे कवि-ऋषि की अंगुली थाम कर ही संभव था, क्यों कि इतनी शक्लों में अदृश्य (आचार्य जी का काव्य-संकलन) का क्षणिक दृश्य भी अत्यंत साधना से संभव होता है।
किसी भी अनुवादक की पहली कसौटी, उस की अनुवाद हेतु चयनित रचना होती है। आंग्ल भाषा के ख्यातिप्राप्त अनुवादक ‘फिट्जेराल्ड’ की ऊंचाई, यदि उसका खैयाम की रूबायों का अनुवाद है, तो उस से पहले उस की वह दृष्टि है जो खैयाम की प्रज्ञा तक पहुंच कर लौटती है। उन का अनुवाद हेतु चयन। उन के महत्त्व की पहचान है। डॉ. आचार्य जैसे सिद्ध और सारगर्भित कवि की कविताओं को आपने अनुवाद हेतु चयनित कर डॉ. दइया ने आपनी चयन-प्रतिभा का परिचय दिया है।
    ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ अनुवाद को किसी भावानुवाद अथवा अनुसृजण की कसौटी पर परखें तो यह इस अनुवाद की श्रेष्ठता भी मानी जाएगी कि यह अनुवाद जहां मूल कवि के भावों को जस का तस प्रस्तुत करता है वहीं कई कविताओं का तो शब्दश: अनुवाद भी पाठक के समक्ष रखता है।
    आप के लिए अनूदित कृति ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ में आचार्य जी के अब तक प्रकाशित 14 काव्य संकलनों- जल है जहाँ, वह एक समुद्र था, शब्द भूले हुए, आती है जैसे मृत्यु, कविता में नहीं है जो, अन्य होते हुए, चाँद आकाश गाता है, उडऩा सम्भव करता आकाश, गाना चाहता पतझड़, केवल एक पत्ती ने, इतनी शक्लों में अदृश्य, छीलते हुए अपने को, मुरझाने को खिलाते हुए और आकाश भटका हुआ से उनकी चयनित कविताएं ली गई है। वे कविताएं जिन में ‘अज्ञेय’ के शब्दों में— ‘आंगन के पार द्वार खुलता है, द्वार के पार आंगन’ और फिर खुलते ही चले जाता है, एक अधुनातन अध्यात्म की भाषा में।
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अनुसृजन मूल कविता का भावाभिनय   
 ०  डॉ. आईदानसिंह भाटी, जोधपुर

‘ऊंडै अंधारै कठैई’ नीरज दइया का किया संचयन-अनुसृजन है, जिसे पढ़ते हुए मूल कविताओं की अनुभूति होती है। हिंदी के प्रख्यात कवि नंदकिशोर आचार्य की कविताएं, जो उनके 14 काव्य-संकलनों में फैली है, दइया ने आपनी सूझ-बूझ और काव्य-विवेक से उन से चयन कर चयनित कविताएं राजस्थानी पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। वे इस पुस्तक में कहते हैं कि- “अनुसृजन मूल कविता का भावाभिनय हुआ करता है।” आपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं- “इस अनुसृजन को करते समय मैंने दो बातों का विशेष ध्यान रखा। एक तो यह कि चर्चित और अलग अलग भंगिमाओं की कविताएं बानगी रूप ली जाए, दूसरी बात यह कि वे कविताएं ली जाए जो अपनी भाषा और इस राजस्थानी धरा की मनःस्थियों से जुड़ी है।” नीरज दइया ने इस अनुसृजन में इन दोनों बातों का निर्वाह किया है और आचार्य जी की कविताओं के मर्म तक पहुंच कर उनकी महक पाठकों तक पहुंचाने में सफल हुए हैं।
    अज्ञेय के चौथा सप्तक के कवि नंदकिशोर आचार्य राजस्थान की हिंदी कविता में आगीवान नाम है और राजस्थानी आंचलिकता की सौरम को. उन्होंने हिंदी के माध्यम से देश-परदेश में बिखेरा है। इसी सौरम को राजस्थानी पाठकों तक पहुंचाने का बेहतरीन और शानदार काम भाई नीरज दइया ने किया है जिस की किरणें ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ में रूपास के साथै झिलमिलाती हैं। अनुसृजन में कठिन काम होता है मूल आत्म-संवेदन को पकड़ना और दूसरी भाषा में लाना, साखकर कविता में तो बेहद कठिन। पर नीरज दइया ने इस काम को पूरी पारखी दृष्टि के साथ पूरा किया है। राजस्थानी के टकसाली सबदों और राजस्थानी के मुहावरों को प्रयुक्त कर उन्होंने इस काम को सांस्कृतिक रूप से पूरा किया है।
    आंचलिकता के साथ पौराणिक चरित्रों की कविताओं के भाव और विचार-बिंब साधने का शानदार अनुसृजन राजस्थानी पाठकों को एक हिंदी कविता का आस्वाद चाखने की सौगात भर है। मुझे यह सौगात इस रूप दिखाई दी- “नीं हुवै कवि रौ कोई घर/ बस जोवतौ इज रैवै घर/ बिंया बौ दीसतौ रैवै भासा मांय/ पण जिंया आभै मांय/ रैवै पंखेरू/” और पंखेरू जैसे उठते कवि के एक घर को, धरती पर उतार कर दूसरी भाषा के आवरण में बसाने का सबल प्रयास नीरज दइया ने किया है। इण प्रयास को भाई मोहन आलोक ने इस प्रकार सराहना की है- “ऊंडै अंधारै कठैई’ अनुवाद को भावानुवाद या अनुसृजन की कसौटी पर जांचे तो यह इस अनुवाद की श्रेष्ठता ही कही जाएगी कि यह अनुवाद जहां मूल कवि के भावों को हू-ब-हू प्रकट करता है, वहीं कई कविताओं के शब्दशः अनुवाद भी पाठकों के समक्ष रखता है।” आचार्यजी की कलम और नीरज को बधाई।
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मूल कविताओं का सार्थक अनुसृजन
०  डॉ. मदन सैनी, बीकानेर

‘ऊंडै अंधारै कठैई’ संग्रह में मनीषी-कवि डॉ. नंदकिशोर आचार्य के 14 काव्य-संग्रहों से चयनित 83 कविताओं का अनुसृजन, ऊर्जावान कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया ने गहन मनोयोग से किया है। इस अनुवाद के बहाने डॉ. दइया ने आचार्य के संपूर्ण कवि-कर्म का अध्ययन-मनन और चिंतन कर मूल कविताओं के मर्म और आत्मा तक पहुंचे है। अनुवाद को भावाभिनय की संज्ञा देकर सच में अनुवादक ने मूल भावों और व्यंजनाओं को सहेजते-संभालते आत्मसात कर यह अनुवाद किया है। यही कारण है कि एक से बढ़कर एक कविताओं को अनुवादक ने अपनी कवि-दृष्टि और विवेक से चयनित कर एक सार्थक अनुसृजन पाठकों को उपलब्ध करवाया है। अनुवादक के शब्दों में- ‘‘जिस प्रकार नाटक में कलाकार अपने अभिनय से मूल पात्र और समग्र रचाव को जीता है, ठीक उसी भांति मैं भी अनुसृजन करते हुए मूल कविता को भीतर गहरे तक जीने का पूरा-पूरा प्रयास करता हूं।” हर्ष का विषय है कि संग्रह में डॉ. दइया ने जीवंत अनुवाद कर कविताओं को अपनी मातृभाषा राजस्थानी में पुर्नजीवित किया है। 
    राजस्थानी में काव्यानुवाद का एक अंश देखिए- “रचूं थन्नै/ कित्ती भासावां मांय/ मूळ है हरेक भासा मांय/ कठैई थूं अनुसिरजण कोनी। बसंत री हुवै का पतझड़ री/ पंखेरूवां री का पानड़ा री/ भाखरां री का झरणां री/ काळ री का बिरखा री।”
    एक भाषा की भावभूमि को अन्य भाषा में हू-ब-हू अनुसृजन के माध्यम से सृजित करना असल में एक लोक से अन्य लोक की यात्रा है। डॉ. दइया के शब्दों में- “मेरी दृष्टि में नंदकिशोर आचार्य की समग्र काव्य-साधान की असल कमाई किसी अर्थ में गहन अंधकार में कहीं पहुंच कर अपने पाठकों के समक्ष सर्वथा नवीन सत्य का उद्घाटन ही है। इसे दूसरे शब्दों में इस भांति कहा जा सकता है कि वे निवड़ अंधकार में सिर्फ पहुंचते ही नहीं, वरन अपने साथ पाठकों को भी उस अंधकार के अहसास में ले कर जाते हैं।”
    यह बात सत्य है, बिना अंधेरे के, उजाले का क्या अर्थ? तमसोमाज्योतिर्गमय के मार्ग चलती ये कविताएं अपने ‘समय’ में अपने होने को व्याख्यायित करती हैं। ‘बगत’ कविता की ये पंक्तियां देखिए- ‘बगत सूंप्यो-/ खुद नै/ म्हनै/ कीं ताळ तांई/ कै कीं बगत खातर/ बगत हुयग्यो हूं म्हैं।/ टिपग्यो सगळो बगत/ इणी दुविधा मांय।/ नीं बगत बणायो/ म्हारो कीं/ नीं बणा सक्यो म्हैं ईज/ बगत रो कीं।’ (पृ.68)
    इस संग्रह की कविताओं में जिंदगी के बहुआयामी-विविधवर्णी दृश्य-चित्र हमारे समक्ष आते हैं, इन में प्रकृति-प्रेम के दृश्य हैं, आत्मा-परमात्मा और फिर-फिर जन्म-मरण के विश्वास हैं। यहां दूसरों के दुख में दुर्बल होने की मनःस्थितियों में परदुख-कातरता के भी अनेक चित्र हैं। ऐसे में इस पुस्तक का पाठ अपने आप में एक द्वितीय अनुभव-यात्रा है।
    जिंदगी के अंधेरे-उजालों को प्रत्यक्ष साकार करती संग्रह की कविताओं में ‘वरबरीक’ और ‘पांचाली’ के विशेष पौराणिक संदर्भ उल्लेखनीय हैं। ‘बरबरीक’ महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण की उपस्थिति को बाजीगरी बताते हुए, बर्बरीक के मुख से कवि ने कहलवाया है- “साम्हीं दीठाव भिड़ती हुवै/ छियावां कठपूतळियां री जियां।/ साच है, हां/ कठपूतळियां ई हा सगळा बै--/ जिकी नै डोर सूं झल्यां आभै मांय/ बो दीसै हो म्हनै/ चतुर्भुजधारी अेक बाजीगर/ खुद रै खेल सूं राजी/ - बो भयानक जुद्ध उण रो खेल ईज तो हो।”
    एक अन्य और संग्रह की अंतिम कविता ‘पांचाळी’ में द्रौपदी की मनःस्थिति के कई गहरे-गहन अर्थ दर्शाती लंबी-कविता है। इस में जब भीष्म कहते हैं- ‘दुष्टां रो अन्न मति बिगाड़ दी ही।’ तब द्रौपदी के ये शब्द- ‘ना, पितामह/ अन्न तो बो सागी ई खावतो हो विकर्ण ई।’ सामाजिक को नवीन दृष्टि और अर्थ देने वाले हैं। ये कविताएं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे सामाजिक-सरोकारो से जुड़े अनेकानेक प्रश्नों को न केवल उठातीं हैं, वरन उनके भीतरी राग-विराग से जुड़ी लोकमानसिक वृतियों का भी गहन यर्थाथ प्रस्तुत करती हुई ‘दिन रो ई दिन’ दिखाने के प्रयास करती दिखाई देती हैं। कवि के शब्दों में- ‘कित्ता’क दिन रैवैला/ रात?/ कदैई तो आसी/ दिन रो ई दिन/ कोई तो।’ (पृ.51)
    मैं इस शानदार अनुवाद के लिए अनुवादक डॉ. नीरज दइया और प्रकाशक को हृदय से बधाई देता हूं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मूल कवि डॉ. नंदकिशोर आचार्य के बिना आशीर्वाद के यह अनुवाद संभव नहीं था, उनको भी बहुत-बहुत साधुवाद और बधाई।

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अत्कृष्ट अनूदित कृति- ‘ऊंडै अंधारै कठैई’
देवकिशन राजपुरोहित, चंपाखेड़ी (नागौर)
मेरे सामने एक हिंदी-कवितओं की राजस्थानी में अनूदित कृति ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ है। जिसके अनुवादक डॉ. नीरज दइया है। डॉ. दइया ने लब्ध प्रतिष्ठित हिंदी के साहित्य मनीषी डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की चर्चित हिंदी कविताओं का हिंदी से राजस्थानी में अनुवाद किया है। आचार्य नन्दकिशोर एक ऐसे कवि हैं जिनकी ख्याति भारत से बाहर समुद्र पार तक है। आचार्य हैं वे साहित्य के इसलिए उनके नाम के पूर्व आचार्य का उल्लेख किया है। मैं व्यक्तिगत रूप से 1977 से श्री आचार्य को जानता हूं जब रामपुरिया कॉलेज में वे व्याख्याता थे और डॉ. बुलाकीदास कल्ला ने एक आयोजन रखा था जिसमें दैनिक नवज्योति के प्रधान संपादक कप्तान दुर्गा प्रसाद चौधरी, शिक्षक संघ के संस्थापक अध्यक्ष बिशन सिंह शेखावत और मैं स्वयं मंचस्त थे। तब उनका एक आलेख भी दैनिक नवज्योति में प्रकाशित किया गया था।
    आचार्य का सृजन अनवरत चलता रहा। चल रहा है। दुर्भाग्य है कि उनका मूल्यांकन केंद्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा अब तक नहीं हुआ है। दुर्भाग्य पूरे राजस्थान प्रदेश के हिंदी साहित्य का कहूं तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं कि अब तक प्रदेश के किसी भी साहित्य मनीषी का चयन साहित्य अकादेमी द्वारा नहीं हुआ है। चयन प्रक्रिया में जहां पक्षपात, चाटुकारिता और चरण-चंपी चलती है उसमें आचार्य टिक नहीं पाते। इसका उदाहरण केंद्रीय साहित्य अकादेमी के राजस्थानी विभाग में तो यत्र तत्र सर्वत्र चर्चा का विषय है।
    ऐसे में निस्वार्थ भाव से राजस्थानी पाठकों को आचार्य जी की कविताओं से रू-ब-रू कराने के लिए डॉ. नीरज दइया ने यह अनुवाद किया है। आचार्य की अब तक प्रकाशित 14 कविता पुस्तकों से चुनिंदा प्रतिनिधि कविताओं के इस संकलन अनुवाद में राजस्थानी की उर्जा और ओज देखते ही बनती है, इसमें भाषा को समरूपता के स्तर पर मानक निर्धारित किया गया है। रचना का अनुवाद मूल लेखन से भी अधिक कठिन कार्य होता है, जिसमें सृजन का अनुसृजन चुनौति पूर्ण कार्य होता है।
    पुस्तक के आरंभ में अनुवादक ने अपनी बात अनुवाद के विषय में स्पष्ट करते हुए एक सांगोपांग आलेख देकर सारी स्थितियों पर प्रकाश डाला है जो पठनीय और मननीय है। संकलित सभी कविताओं की अपनी अपनी भंगिमाएं और अर्थ वैभव है किंतु मैं उदाहरण स्वरूप एक लंबी कविता ‘पांचाली’ जिसे इस में शामिल किया गया है के विषय में समझता हूं कि यह कविता पांचाली के जीवन का पूरा यर्थाथ परोसती है जो सारगर्भित, मार्मिक और सामाजिक विसंगतियों पर व्यंग्य भी है। कविता के अनुवाद में पांचाली की मानवीय पीड़ा हृदयस्पर्शी है।
    डॉ. नीरज दइया इससे पहले भी अनेक पुस्तकों का अनुवाद कर चुके हैं और सद्य प्रकाशित अनुवाद अपने आप में अत्कृष्ट अनूदित कृति है। डॉ. नीरज दइया को साधुवाद।
बीकानेर के सबसे पुराने प्रकाशन सूर्य प्रकाशन मंदिर द्वारा प्रकाशित एक सौ बीस पृष्ठों की पुस्तक ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ का मूल्य दो सौ रुपये सजिल्द किसी को अखरेगा नहीं। उत्तम कागज और उत्कृष्ट मुद्रण के लिए प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।

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कठिन कवि डॉ. आचार्य की कविताओं का अनुवाद
नवनीत पाण्डे,बीकानेर
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के ‘बापजी चतुरसिंहजी अनुवाद पुरस्कार’ से सम्मानित कवि-आलोचक और अनुवादक डॉ. नीरज दइया ने अब तक अनेक पुस्तकों का राजस्थानी अनुवाद किया है, जिनमें अमृता प्रीतम की पंजाबी काव्य-कृति ‘कागद अर कैनवास’, निर्मल वर्मा के हिंदी कहाणी संग्रह ‘कागला अर काळो पाणी’, भोलाभाई पटेल के गुजराती यात्रा-वृत ‘देवां री घाटी’ के अतिरिक्त भारतीय की 24 भाषाओं के कवियों की कविताओं का संचयन और अनुवाद ‘सबद-नाद’ बेहद चर्चित रहा है। कवि मोहन आलोक के राजस्थानी कविता संग्रह ‘ग-गीत’ का हिंदी अनुवाद भी डॉ. नीरज दइया की उपलब्धियों में शामिल है, और इन सब के बाद अब उनका नया अनूदित कविता संग्रह ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ (मूल कवि डॉ. नंदकिशोर आचार्य) मेरे हाथों में है। 
    ‘चौथा सप्तक’ के कवि डॉ नंदकिशोर आचार्य जैसे हिंदी में कुछ कवि ऐसे हैं जिनके पाठ में कविता के अनेकार्थ और विविध व्यंजनाएं देखी-समझी जा सकती है। ऐसे में इन कवियों को कठिन-कवि की संज्ञा भी दी जा सकती है। डॉ. आचार्य जैसे कठिन कवि की कविताओं का किसी भाषा में अनुवाद निसंदेह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और यह कार्य डॉ. नीरज दइया के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण रहा होगा क्यों कि वे यहां महज अनुवाद ही नहीं कविताओं के चयनकर्ता भी हैं। जाहिर है कि मूल कवि के 14 कविता संग्रहों से कविताएं चयनित करनी हो तो यह दुष्कर ही होगा। किस संग्रह से कौनसी कविता को लिया जाए, कौनसी छोड़ दी जाए। जाहिर है ऐसे किसी भी संचयन में ऐसा तय करना मुश्किल होता है। इसे इस संग्रह की उपलब्धि कहा जाएगा कि इस संग्रह में मूल कवि की काव्य-यात्रा के विविधवर्णी सौपानों का एक जायजा प्रस्तुत हुआ है।
    डॉ. नीरज दइया ने ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ (गहन अंधकार में कहीं) डॉ. नंदकिशोर आचार्य की चयनित कविताओं का राजस्थानी-अनुवाद कर पाठकों और साहित्य-समाज को चकित किया है। अनुवाद-कर्म परकाया प्रवेश है और इस संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि डॉ. नीरज इसमें पूर्णतः सफल रहे हैं। वे मूल कवि आचार्य की भाव-भूमि तक पहुंचने में सफल रहे हैं।
    मुझे व्यक्तिगत खुशी इसलिए भी है कि मैं इस कार्य का साक्षी रहा हूं कि किस कदर अनुवाद में डूब कर डॉ. नीरज ने इसे संभव बनाया गया है। संभवतः उनके कार्य की लगन और निष्ठा का संग्रह संग्रह एक प्रमाण है। इस कृति के लोकार्पण-आयोजन मूल कवि डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की साक्षी में हुआ। वहां उपस्थित दर्शकों और श्रोताओं ने वह सुना जो डॉ. नंदकिशोर आचार्य ने कहा, उन्होंने कहा था- “मातृभाषा राजस्थानी होते हुए भी मेरे सोचने-विचारने की भाषा हिंदी है। अनेक आग्रहों के उपरांत भी मैं राजस्थानी में नहीं लिख सका, ऐसे में कवि-अनुवादक नीरज दइया द्वारा पुस्तक ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ का अनुवाद राजस्थानी पाठकों के लिए करना सुखद अनुभूति है।’ यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस अनुवाद के संबंध में अपनी बात भूमिका में विस्तार से लिखते हुए डॉ. नीरज दइया ने डॉ. आचार्य की नाट्य कर्म के संदर्भ में रची कविता से एक विचार को विस्तार देकर सत्य कर दिखाया है। नाटक में जिस भांति चरित्र अभिनय करते हैं वैसे ही
अनुवाद मूलतः मूल कविता का भावाभिनय है जो अनुवादक करता है।
    राजस्थानी भाषा की मिठास का रस पाने पर ऐसा लगता है कि ये कविताएं मूल हिंदी में नहीं वरन राजस्थानी में ही लिखी गयी हैं। डॉ. नीरज को इस जरूरी महत्त्वपूर्ण, ऐतिहासिक साहस और प्रकाशन के लिए हार्दिक बधाई!
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 डॉ. नीरज दइया का दुस्साहस है- ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ 
० बुलाकी शर्मा,बीकानेर
     हिंदी के यशस्वी कवि, नाटककार, समालोचक, विचारक, चिंतक डॉ. नंदकिशोर आचार्य की चुनिंदा हिंदी कविताओं का राजस्थानी अनुसृजन है- ‘ऊंडै अंधारै कठैई’। आचार्य की हिंदी कविताओं का राजस्थानी में अनुसृजन यानी अनुवाद किया है राजस्थानी के सुपरिचित कवि-आलोचक-अनुवादक डॉ. नीरज दइया ने। नीरज ने आचार्यजी के हिंदी में प्रकाशित 14 कविता-संग्रहों से 83 कविताओं का चयन कर इन्हें इस पुस्तक के माध्यम से राजस्थानी पाठकों को अद्भुत उपहार दिया है।
    डॉ. नंदकिशोर आचार्य हिंदी के महत्त्वपूर्ण कवि हैं और उनके कवि-कर्म को गंभीरता से लिया जाता रहा है। वे जन्मना बीकानेर-राजस्थान के हैं किंतु उनका विलक्षण एवं वैशिष्ट्यपूर्ण सृजन उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किए हुए है। ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ पुस्तक पर बात करते हुए मुझे ‘कवि आचार्य’ के कवि-कर्म पर यश्वस्वी कवि डॉ. केदारनाथ सिंह द्वारा कहे शब्द स्मरण हो आते हैं- ‘कवि की मूल चिंता है सृजन के रहस्य की समस्या। अज्ञेय के बाद इस रहस्य के अंधेरे में प्रवेश का जोखिम शायद यहां पहली बार उठाया गया है।’
    मतलब यह कि अज्ञेय के बाद पहली बार सृजन के रहस्य के अंधेरे में प्रवेश करने का जोखिम उठाने का सृजनात्मक दुस्साहस करने वाले हिंदी के यशस्वी कवि आचार्य की कविताओं के अंतर्मन में झांकने और उसमें छिपे रहस्यों को उसी मनोभावों के साथ दूसरी भाषा में सृजित करने का दुस्साहस वही कर सकता है जो ऐसा सृजनात्मक जोखिम अपनी भाषा में उठाने से घबराता नहीं है। डॉ. नीरज दइया ने लगभग ऐसा ही दुस्साहस किया है- ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ के मार्फत।
    डॉ, नीरज दइया राजस्थानी काव्य-परंपरा से सुपरिचित हैं और वे चाहते हैं कि आचार्यजी द्वारा सृजित कविताओं जैसी भावभूमि की कविताएं मातृभाषा राजस्थानी के पाठकों तक पहुंचनी चाहिए।
    उन्होंने पुस्तक की भूमिका में अपनी इस मंशा-चाहना को व्यक्त भी किया है- ‘जिकी कविता नै दाय करूं उणनै म्हैं म्हारी भासा तांई लेय आवूं। आ मनगत अनुसिरजण री हुया करै।...... इण मांय अणमाप आणंद मिलै कै हिण कविता सूं हेत हुवै वा आपरी प्रीत म्हारी भासा मांय प्रगटै।’
    कह सकता हूं कि आचार्यजी की जिन कविताओं ने नीरज को अत्यधिक सम्मोहित किया और ऐसा सम्मोहित कि वे उनसे ‘हेत’ करने लगे, उन कविताओं को उन्होंने अपनी मातृभाषा राजस्थानी में पूरे अपनत्व के साथ अनुसृजित किया है। उनके अनुवाद की ही यह सामर्थ्य है कि उन्हें पढ़ते हुए हमें लगता ही नहीं कि हम अनूदित रचनाओं से रू-ब-रू हो रहे हैं, वरन ऐसा सुखद अहसास होता है जैसे कि आचार्यजी की राजस्थानी में सृजित कविताओं से साक्षात कर रहे हैं।
    मैं यहां आचार्यजी की एक कविता ‘लामकां है भाषा’ (कविता संग्रह- चांद आकाश गाता है, पृष्ठ-47) का अंश उद्घृत करना चाहता हूं-
....../ लामकां है भाषा/ जिसमें नहीं बन सकता/ मकां कवि का/ -किसी का भी-/ उडते ही रहना है उसे/ ठहरा कि लो यह गिरा/ .....
....../ बैठाण हुवै भासा/ जिण मांय कोनी बणै / कवि रो घर/ -किणी रो ई-/ उडतो रैवणो है उणनै/ ठैरियो कै लो, इ पड़्यो/ .....
    यह साक्ष्य है इस बात का कि आचार्यजी की ‘कविता के अंतस’ में स्वयं को गहरे तक उतार कर डॉ. नीरज दइया ने राजस्थानी पाठकों के अंतस तक उनकी कविताओं को पहुंचाने का सृजनात्मक कार्य किया है- ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ के रूप में। डॉ. नीरज दइया को बधाई। विस्तार से चर्चा फिर कभी।

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असंभव को संभव करने जैसी क्लिष्ट क्रिया
रामस्वरूप किसान, परलीका (हनुमानगढ़)
         राजस्थान के हिन्दी कवियों में नंदकिशोर आचार्य एक ऐसा नाम है जिसने अज्ञेय द्वारा संपादित ‘चौथे सप्तक’ में छपकर केन्द्रीय हिन्दी कविता में अपना नाम दर्ज कराते हुए राष्ट्रीय पहचान बनाई है। आचार्य ने अपनी कविता के बलबूते राजस्थान की सीमा लांघ अखिल भारतीय हिन्दी कविता में स्थान पाया है। डाॅ. नीरज दइया ने इनकी प्रतिनिधि कविताओं को राजस्थानी में अनूदित कर ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ नाम से संग्रह प्रकाशित करवाया है। आचार्य जी को एकमुश्त पढ़ने का वर्षों से संजोया मेरा सपना पूरा हुआ। और वह भी मातृभाषा में। पानी चाहा, घी मिला। सोचा, ऐसी मुराद कभी पूरी हुई ही नहीं। मैं इसके लिए डाॅ. नीरज दइया का शुक्रगुजार हूं, जिसने अनुवाद सरीखे दुरूह, अबखे व जटिल कार्य को अपने बेजोड़ हुनर से अमलीजामा पहनाते हुए एक भाषा के बहुआयामी कवि को अपनी विलक्षण चुनाव क्षमता द्वारा उसकी समग्रता में किसी अन्य भाषा में बड़ी निपुणता से दिखाया है। 
         किसी रचनाकार को उसकी चुनींदा कविताओं के अनुवाद द्वारा किसी अन्य भाषा में उसकी संपूर्णता के साथ ले जाने के बड़े खतरे हैं। डाॅ. दइया इन खतरों से बहुत बार गुजरे हैं। अमृता प्रीतम की कविताओं को पंजाबी से, निर्मल वर्मा की कहानियों का हिन्दी से, भोलाभाई पटेल के यात्रा-वृतांतों का गुजराती से, भारतीय भाषाओं के चयनित कवियों का चौबीस भारतीय भाषाओं से राजस्थानी अनुवाद तथा मोहन आलोक की कविताओं के राजस्थानी से हिन्दी अनुवाद से गुजरते हुए नीरज इतने परिपक्व और हुनरमंद हो गए कि इनके यहां मूल और अनुवाद का फर्क मिट जाता है। इन्होंने यह सब अभ्यास से कमाया है। अनुवाद में पहला और अहम पड़ाव होता है- रचना-चयन। जिसकी सफलता में निस्संदेह नीरज का आलोचक आड़े आता है। एक सफल आलोचक से बेहतर रचना की छंटनी कौन कर सकता है। इसी हुनर के चलते ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ एक ही बैठक में पढ़ने को मजबूर करती है। श्रेष्ठ कृति आखिर खुद को पढ़वा ही लेती है। ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ की चिंतन प्रधान कविताओं का बेजां आग्रह नंदकिशोर आचार्य की कवित्व शक्ति और नीरज के सबल अनुवाद पर मोहर लगाता है। 
             इन छोटी दिखने वाली कविताओं का संसार बहुत व्यापक है। जिसमें कृष्ण के होठों लगी बांसुरी के इंकलाब से लेकर मुकुट में सजी मोरपंख की स्थिति का बेहद कलात्मक बिम्ब है। ‘बरबरीक’ व ‘पांचाली’ महाभारत के मिथक में गुंथी लंबी कविताएं हैं। महाभारत-कथांश के बहाने पांचाली आधुनिक नारी-विमर्श की मार्मिक अभिव्यंजना है, जो कवि की विलक्षण प्रतिभा का प्रखर सबूत है। 
             डाॅ. नीरज दइया कवि-आलोचक व अनुवादक के रूप में एक त्रिभुजाकार प्रतिभा के धनी हैं, जिसकी भुजाएं परस्पर स्वयं को पुष्ट करती रहती हैं। इसी लाभ के फलस्वरूप शायद उनके काव्यानुवाद की क्वालिटी विशेष है, जिसमें कृति का वही पाॅवर बना रहता है जो मूल में होता है। गद्य-अनुवाद की अपेक्षा पद्य-अनुवाद में यह खतरा अधिक रहता है। इससे सिद्ध होता है कि अनुवाद वास्तव में पुनर्सृजन जैसी क्रिया है, जिसकी श्रेष्ठता छूटे हुए की भरपाई में ही संभव है। और यह छूटने की संभावना अमूमन गद्य में होती है। श्रेष्ठ कविता में सब कुछ कम्पलीट होता है। क्योंकि बड़ा कवि तो कहीं खांचा छोड़ता ही नहीं। इसीलिए संभवतः प्रसाद की कामायनी का अनुवाद संभव नहीं हो सका। इस अर्थ में अनुवाद असंभव को संभव करने जैसी क्लिष्ट क्रिया है। जो इसे सरल मानकर थोक में करते जाते हैं, वे अंधेरा ही ढोते हैं। परन्तु डाॅ. नीरज दइया ने जिस अथक श्रम व प्रतिभा के बल ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ को जिस शिद्दत से राजस्थानी भाषा के बल्ब तले लाकर खड़ा किया है, निस्संदेह बधाई के पात्र हैं।
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 अनुवाद के ंगन में गूंजती रेत-रा
मदन गोपाल लढ़ा, महाजन (बीकानेर)         
कविता की सत्ता घनीभूत संवेदना से निर्मित होती है। भाषा चाहे जो हो, कविता का प्रवाह पाठक के अंतस में भाव या विचार के रूप में अपनी आमद दर्ज करता है। कवि की समूची चेतना किसी क्षण विशेष में महसूस किए गए अनुभव को शब्दों के माध्यम से प्रकट करती है। कविता के माध्यम से ये अनुभव पाठक के अनुभव-जगत का हिस्सा बन जाते हैं। नंदकिशोर आचार्य की कविता जगत से गुजरते हुए पाठक यह बराबर महसूस करता है कि उसे नितांत मौलिक अनुभवों का खजाना मिल गया है। आचार्य जी का कवि मन सत्य के विविध पहलुओं की तलाश में कथ्यों को कई कई बार उलट-पलट कर जांचता है। इस प्रक्रिया में कविता पढ़ते वक्त कवि की आकुलता व सत्य को जानने की चेष्टा से रूबरू होता है। यहां प्रसंगवश रचाव की भावभूमि भी पाठक के समक्ष साकार हो जाती है। कहना न होगा, नंदकिशोर आचार्य की हिंदी कविता के विहंगम परिदृश्य में मरु-भौम के प्रवक्ता के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान कायम करते हैं। राजस्थान की रेतीली धरती, खेत खलिहाल, झौंपड़े, मरु वनस्पति, पशुधन, पंखेरू, तीज-त्योहार, मरुधरा के बाशिंदों के जीवन के अबोट चित्रों की मौजूदगी उनकी कविता को रेत-राग से समृद्ध करती है। यह अकारण नहीं है कि उनकी कविता में जल, रेत, मरुस्थल, अकाल, बारिश आदि से जुड़े बिम्ब बार-बार आते हैं। एक कवि अपनी मात भौम का कर्ज कविता से नहीं तो भला कैसे चुकाएगा।
           राजस्थान में जन्म लेने के साथ आचार्य जी लंबे समय तक मरुनगरी बीकानेर में ही रहे हैं। यहां बरबस ही यह सवाल कौंध जाता है कि उन्होंने अपनी मातृभाषा राजस्थानी में कलम क्यों नहीं चलाई। ध्यातव्य है कि वे राजस्थानी लेखन से अनवरत पाठक के रूप में संपर्क में रहे हैं। इसके जबाब में वे अपने सोच-विचार की भाषा में रचाव की बात कहते हैं। अनुवाद के मामले में भी इसी गंभीरता व प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। साहित्य अकादेमी व अन्य संस्थानों के प्रयासों से बीते सालों में अनुवाद का काम तो बढ़ा है मगर उसमें गंभीरता नजर नहीं आती।
           राजस्थानी के नामी कवि-आलोचक एवं समर्थ अनुवाद नीरज दइया ने आचार्य जी की अब तक की संपूण कविता-यात्रा से स्वयं द्वारा चयनित कविताओं का राजस्थानी अनुवाद ‘उंडै अंधारै कठैई’ शीर्षक किताब में प्रस्तुत कर उल्लेखनीय कार्य किया है। अनुवाद में सबसे महत्त्वपूर्ण होता है रचना का चयन। किसी रचना का अनुवाद क्यों किया जाए? इस चयन के मानक हर अनुवाद के अलग-अलग हो सकते हैं। इसके बावजूद रचना की पृष्ठभूमि व कथ्य को अनुवाद की भाषा के संदर्भ में देखा जाना जरूरी है। आलोच्य संग्रह में आचार्य जी की अब तक की कविता-यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ावों को जाना-समझा जा सकता है। इसमें आचार्य जी की चिर परिचित शैली की छोटी कविताएं आई हैं तो ‘पांचाळी’ जैसी लंबी कविताओं को भी शामिल किया गया है। कविता का अनुवाद गद्य की तुलना में मुश्किल माना जाता है। नंदकिशोर आचार्य सरीखे बड़े कवि के संबंध में यह कार्य अत्यंत सावचेती की मांग करता है। अनूदित कविताओं के पाठ इस बात की साख भरता है कि अनुवादक ने पूरी गहराई से इस चुनौती को साधा है। मायड़ भाषा की मिठास व अपणायत से सराबोर ये कविताएं मूल जैसा आनंद देती हैं। बानगी द्रष्टव्य है- ठूंठ है तो कांई/ कीं तो सोचतो हुसी/ जद-कद आय’र बैठे चिड़कली/ -भलांई ठाह ई हुवै उण नै/ किणी ठूंठ माथै चिड़कली/ क्यूं बणावैला आळणो?’
          यदा-कदा हिंदी से राजस्थानी अनुवाद के औचित्य पर सवाल उठाए जाते हैं। इस किताब के पाठ से राजस्थानी जगत अपनी धरती के शिखर कवि की कविताओं को मायड़ भाषा में आस्वाद करने में समर्थ होगा जो इस कार्य की सार्थकता सिद्ध करता है। इस रुचिपूर्ण अनुवाद के लिए अनुवादक, प्रकाशक व अनुमति के लिए मूल कवि साधुवाद के अधिकारी हैं। 
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 डॉ. नीरज दइया का क्रांतिकारी कदम
सत्यनारायण परलीका, परलीका (हनुमानगढ़)
नन्दकिशोर आचार्य मरुस्थल सौंदर्य के अद्वितीय कवि के रूप में विख्यात हैं। आचार्य खड़ी बोली हिंदी में लिखकर राजस्थान से बाहर हिंदी जगत में अपनी पहचान कायम करने वाले प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इनकी रचनाओं में प्रकृति, सौंदर्य और प्रेम जैसे सरोकारों को समसामयिक जीवन के संघर्षों के साथ सघन अभिव्यक्ति मिली है। राजस्थान की प्रकृति और संस्कृति को यहां की भाषा में पोषित कर हिंदी की जमीन में स्थापित करने का जो अनूठा कार्य आचार्य ने किया है वह कोई सधा हुआ विरला ही सृजक कर सकता है। यह किसी देशी बेर के वृक्ष में पेम चढ़ाने जैसा ही कर्म है, जिसे लोक भाषाओँ और संस्कृति से सम्पन्न सृजक ही अंजाम दे सकता है।
सामान्यतया हिंदी कृतियों के राजस्थानी अनुवाद की जरूरत नहीं महसूस की जाती क्योंकि राजस्थानी का पाठक हिंदी में लिखे को बखूबी पढ़ और समझ सकता है, क्योंकि यह राजस्थान की शिक्षा व्यवस्था की माध्यम भाषा है। चूंकि नन्दकिशोर आचार्य की कविताएं राजस्थानी जाति की हिंदी कविताएं हैं, इनकी भावभूमि राजस्थान और राजस्थानी है। ये कविताएं तो मूलतः राजस्थानी ही थीं, जिन्हें कवि ने अपनी सुविधा और पहचान के लिए हिंदी में सिरजा। इसलिए इनका राजस्थानी में अनूदित होना बेहद लाज़िमी था। डॉ. नीरज दइया की प्रतिभा और समझ की वजह से ये कविताएं ठीक उसी तरह अपने मूल स्थान लौट आई हैं जैसे कोई प्रवासी देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का परचम फहराने के बाद बरसों बाद अपनी धरती को लौटता है।
ऐसे में जबकि राजस्थानी भाषा अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रही है और उसकी संवैधानिक मान्यता की जरूरत निरन्तर समझी जा रही है, हर हुनरमन्द इंसान का फर्ज बनता है कि वह अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं का उपयोग करते हुए अपनी भाषा को हर दृष्टि से सम्पन्न बनाए। साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने का दायित्व रचनाकारों का है। मौलिक और उत्कृष्ट सृजन के साथ-साथ उन्हें चाहिए कि अन्य भाषाओं और उनके साहित्य की तरक्की से भी लोगों को अवगत करवाए। सेठियाजी के मुताबिक भाषा की क्षमता की पहचान कविता से सम्भव है इसलिए दुनिया की महत्वपूर्ण कविताओं का भी राजस्थानी में आना जरूरी है।
डॉ. नीरज दइया बेहद प्रतिभाशाली अनुवादक हैं तथा अपनी प्रतिभा के बल पर वे राजस्थानी साहित्य को निरन्तर समृद्ध-सम्पन्न करते रहे हैं। वे हिंदी भाषा और नन्दकिशोर आचार्य की कविता में भी उतने ही रचे-पगे हैं जितने अपनी भाषा राजस्थानी की शब्द-सम्पदा और साहित्य में। इसलिए उनका चयन और अनुवाद इतना उत्कृष्ट बन पड़ा है कि 'ऊंडै अंधारै कठैई' की कविताएं अनुवाद का अहसास तक नहीं होने देतीं तथा पाठक इन्हें मूल राजस्थानी की कविताएं समझते हुए गहरे तक उतर जाता है। वह झूंपे में बैठे डोकरे-डोकरी की आँखों में चमक खोजने लगता है, डाली पर खिले फूल को अपनी प्रियतमा की याद समझ खुद उसी में खिल जाता है या कि सांकड़ी गली की छाया में भाठे की चौकी पर बैठे चरभर रमते उन दो जनों की संगत करता है जिनमें से एक चाल चलता है तो दूसरा मगन होकर जरदे में चूना मिला रहा है। यही अनुवादक की सबसे बड़ी सफलता है।
नन्दकिशोर आचार्य की कविता पर कुछ कहूँ इतनी सामरथ तो नहीं, मगर ऊंडै अंधारै कठैई उतर कर किया गया यह अनुवाद इतना बेमिसाल बन पड़ा है कि इन कविताओं का पाठ करते हुए या कि गुनगुनाते हुए हिया हिलोरे लेने लगता है। पाठक रस निष्पति के चरम को प्राप्त होता है। वह संवेदित, तरंगित होता हुआ उन मानवीय गुणों को प्राप्त करता है जिनका विकास कवि चाहता है।
निश्चय ही नीरज दइया का यह क्रान्तिकारी कदम राजस्थानी कविता में नवीन दृष्टि का सूत्रपात करेगा।
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अनुवाद मूल कविताओं की पुनर्रचना
० डॉ. मंगत बादल, रायसिंहनगर
    कविता क्या है? गहन अंधकार में डूब कर प्रकाश खोजने की प्रविधि ही तो है। कविता जब एक भाषा से दूसरी भाषा में यात्रा करती है तो मूल भाषा की महक के साथ वह दूसरी भाषा की महक को इस कदर समाहित कर लेती है कि उनके बीच कोई सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती है। सृजन और अनुसृजन की घटाएं जैसे हिल-मिल कर एक दूसरे की छवि को तो दिखाती है, परंतु इस अमृत-धारा को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। 
    कोई अनुसृजन तभी सफल होता है जब अनुवादक मूल की ऊंचाई और उस के ‘ऊंडै अंधारै’ (गहन अंधाकार) में पहुंच कर कविता की आत्मा से साक्षात्कार करता है। यहां मेरा गहन अंधकार से अभिप्राय कविता की उन अर्थ-छवियों से है जो सामान्य पाठक की पकड़ में नहीं आती। अनुवादक पहले स्वयं कविता की गहराई में उतरता है, ऊंचाई का अंदाजा लगाता है, इंद्रधनुष की भांति अर्थ-सौंदर्य से मुग्ध होता है और फिर एक-एक शब्द को अपने सामने रखते हुए उनकी जांच-परख कर तराजू के दोनों पलड़ों को देखता है कि बराबर तो है? इसी में उसकी सफलता और सार्थकता है। 
    डॉ. नन्द किशोर आचार्य के चौदह संकलनों में से कविताओं का चयन करना बहुत मेहनत और समस्याओं से धिरा कार्य है। पहली बात तो यह कि राजस्थानी में कहा जाता है कि ‘लाडू री कोर तो च्यारुं कांनी सूं मीठी हुवै’ (लड्डू की कोर तो हर तरफ से मीठी होती है।) किसे छोड़ा जाए और किसे रखा जाए? दूसरी समस्या यह भी कि कवि की भाव-भूमि पर पहुंचे बिना अनुवाद कहीं शब्दों का सिर्फ अर्थ बन कर ही नहीं रह जाए, क्योंकि डॉ. आचार्य संश्लिष्ट और रहस्यवादी कवि भी है कि उनको जितना कस कर पकड़ोगे उतने ही वे बाहर भी छूटते चले जाते हैं।
    डॉ.नीरज दइया का यह सतत प्रयास रहा कि कविता के मूल में वही आस्वाद बना रहे। इसी के रहते उन्होंने शिल्पपक्ष पर विशेष ध्यान दिया है। आचार्य जी की कविताओं का बिंब-विधान रसिक पाठक को बहुत आकर्षित करता है। इन कविताओं को पढ़ते हुए कहीं ऐसा नहीं लगता कि हम अनुसृजित कविताएं पढ़ रहे हैं। मैं इसे डॉ. दइया की सर्वाधिक सफलता कहूंगा। उन्होंने जो बात भूमिका (अनुसिरजण: मूळ कविता रो भावाभिनय) में लिखी है- ‘मेरा मत है कि किसी रचना में शिल्प और विचार महत्त्वपूर्ण होते हैं। अनुवाद के माध्यम से कोई रचना किसी भी भाषा तक पहुंच सकती है।’ वे स्वयं इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। अधिकांश पाठकों ने संभव है कि आचार्य जी की इन सभी रचनाओं को पहले से पढ़ रखा हो, किंतु राजस्थानी भाषा में पढ़ कर उन्हें बहुत आनंद मिलेगा, यह मेरा विचार है। अनुसृजक ने कविताओं की आत्मा तक पहुंच कर और उन में गहरे डूब कर जैसे इन कविताओं की पुनर्रचना की है। डॉ. नीरज दइया के इस कथन में तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं वरन आत्मविश्वास का प्रस्तुतीकरण है- ‘मैं मानता हूं कि प्रत्येक कविता का अनुवाद हो सकता है, परंतु कई बार ऐसे अनुवाद में मूल कविता बहुत पीछे छूट जाती है, इसलिए इस भांति के अनुवादक का मैं पक्षधर नहीं हूं।’ 

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मूल रचना की अन्तर्दृष्टि का प्रभावी राजस्थानी अनुवाद 
० मुकेश व्यास, बीकानेर 
हिंदी के ख्यातनाम कवि-आलोचक-चितंक डॉ. नन्द किशोर आचार्य की काव्य-साधना 25 वर्षों के कालखंड (1980 से 2015) में फैली है, उनके 14 काव्य संग्रहों से कविताएं 83 चयनित करना आसान नहीं, चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह चुनौति तब बढ़ जाती है जब मूल हिंदी कविताओं से राजस्थानी अनुसृजन करना हो। यह चुनौतीपूर्ण कार्य उसी क्षण से शुरु हो जाता है कि जब आप यह सुनिश्चित कर पाएं अनुसृजन के लिए कौन सी कविता लेनी है, और कौन सी नहीं लेनी। कविता के चयन के बाद मूल कविता के भाव का ज्यों का त्यों अनुसृजन में लाने की चुनौती। एक पाठक के तौर पर मूल कवि के रचनाकर्म की संवेदना और अहसास को अनुभूत करना और उसी भावभूमि पर आकर ठीक-ठीक अपनी भाषा में प्रकट करना आसान नहीं अपितु बहुत बहुत कठिन है, लेकिन डॉ. नीरज दइया ने यह चुनौती न केवल स्वीकारी अपितु सफल भी रहे हैं। इसके लिए उन्हें साधुवाद।
   डॉ. नन्द किशोर आचार्य जिस संवेदना के कवि हैं उन की कविता आपके भीतर भी गहरे तक कुछ होने की मांग करती है, कविता कहती नहीं वरन आप कविता को सुनते हैं अपने भीतर। पाठक रहते हुए कविता जितना आपको गढ़ती है, अनुसृजक के तौर पर एक जगह आकर आपको ठिठका भी देती है। अनुसृजक जो कि स्वयं एक कवि है उस की मूल संवेदना उसे झकझोरती है, वह दूसरी भाषा में अपने अंदाज की मांग करती है। बड़े कवि की बड़ी कविता और अनुसृजक कवि की मुठभेड़ का नतीजा यह है कि एक बेहतरीन संचयन-अनुसृजन राजस्थानी भाषा में ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ तैयार हुआ है।
   राजस्थानी के लिए डॉ. नीरज दइया का यह योगदान निसंदेह मील का पत्थर साबित होगा। हिंदी की श्रेष्ठ, सूक्ष्म संवेदनाओं की सघन कविताओं का राजस्थानी में अनुसृजन शुभ लक्षण है। ‘बरबरीक’ और ‘पांचाली’ के विशेष पौराणिक संदर्भों की कविताओं ने हिंदी में भी विशेष स्थान पाया है, उसी पृष्ठभूमि के भावों का निर्वहन करने की कोशिश करते हुए ठोस अनुसृजन डॉ. नीरज दइया ने किया है। द्रोपदी की मानसिकता के गहरे और गहन अर्थों को नई दिशा देकर लंबी कविता की जीवंतता को न केवल बनाए रखा, अपितु मूल रचना की अन्तर्दृष्टि को भी प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है।
   डॉ. नीरज दइया का मानना है कि राजस्थानी के इस अनुसृजन से पाठक मूल कविताओं को पढ़ने-जानने को उत्सुक होंगे तो उनका यह कार्य उन्हें संतोष प्रदान करेगा।
‘सवाल’ कविता बहुत कुछ सुनने को बेताब करती है-
   सवाल ओ कोनी कै म्हैं/ बोलूं थारी भासा/ या कै थूं म्हारी।
   कांई थारा सबद/ अंगेज लेवै म्हनै/ खुद रै आसै-पासै का बिचाळै/ म्हारै सबदां मांय थारा सुर/ घुळ जावै का कोनी घुळै-/ नींद जियां अंगेज लेवै/ सुपनां नै/ सुपनां नींद मांय/ घुळ जावै जियां? (पृष्ठ- -69)

   इसी क्रम में एक अंश जिससे अनुवाद का आस्वाद मिलेगा, शीर्षक है कविता का- ‘मूळ’|
   रचूं थनै/ कित्ती भासावां मांय/ मूळ है हरेक भासा मांय/ कठैई थूं अनुसिरजण कोनी।
   XXXX
   हरेक मौलिकता/ आपोआप मांय निरवाळी-/ म्हारी हरेक कविता/ भासा नै नवी करती थकी। (पृष्ठ- 54)

    कविता की जो अन्तर्दृष्टि है उसमें भाषा बाधक न होकर संवाहक की तरह पाठक के चित्त में आने लगे तो इसे रचना के हित में दूसरी भाषा में किए गए अनुसृजन को सफल मानना चाहिए। ‘ऊंडै अंधारै कठैई’ की रचनाएं मूल कविता के साथ-साथ राजस्थानी भाषा में भी नई ऊंचाई लाएगी। उसकी मौलिकता और कर्मठता को समर्पित है यह संग्रह।
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डॉ. आचार्य की रचनाओं का मनमोहक कॉलाज
० भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’, बीकानेर
    डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की चुनींदा 83 कविताओं का अनुवाद करके डॉ. नीरज दइया ने सचमुच एक श्रमसाध्य और श्रेयस्कर काम किया है। श्रमसाध्य और श्रेयष्कर इसलिए क्योंकि ये कविताएं किसी एक काव्य-पुस्तिका तक सीमित न होकर पृथक-पृथक कालखंडों में कवि द्वारा सृजित 14 काव्य-पुस्तकों के समुच्चय में से चुनकर सम्मिलित की गई हैं। एक प्रकार से देखा जाय तो डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की पूरी काव्य-यात्रा का अद्यतन प्रतिबिम्ब इन कविताओं में मिलता है। डॉ. दइया ने इसी शब्द-साधना के साथ अनुवाद किया है जो मौलिक लेखन में वांछित होती है और अनुवाद करते समय वैसा ही अपनापन भी महसूस किया है जैसा मनोनुकूल अच्छी कविता रचने पर मूल लेखक महसूस करता है।
    अनुवाद की प्रमुख शर्त यह है कि वह मूल रचना की आत्मा को अभिव्यंजित करे। ऐसा करते हुए वह न तो तथ्यों, भावों या विचारों के साथ छोड़छाड़ करे और न शिल्प या शैली में कोई घालमेल करे। अनुवाद एक प्रकार का स्वानुशासन, रचनात्मक निष्ठा और गंभीरता की मांग करता है। मूल भाषा की रचना में अपना एक खास काव्य-संवेदन, भाषा का एक विशिष्ट संस्कार टटकापन, शब्दों का अपनी ही लय, रंगत और अर्थ-परंपरा तथा एक भरीपूरी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ अनेक अंतर्मुखी ध्वनियां, अर्थ-संकेत और अर्थ-संभावनाएं होती हैं।
    अनुवाद करते समय अनुवादक को भाषा के इसी शील की रक्षा करनी होती है, सधा हुआ अनुवाद वैसा ही होता है जैसा एक संकरे पुल पर सजगता और सधे हुए कदमों से आगे बढ़ा जाए। अब सवाल उठता है कि डॉ. दइया इस श्रमसाध्य व श्रेयस्कर काम में इतने सफल कैसे हुए। इसके पीछे अनेक कारण हैं। डॉ. दइया ने अब तक पंजाबी, हिंदी व गुजराती की विविध विधाओं के साथ-साथ 24 भारतीय भाषाओं की कविताओं का राजस्थानी में सफल अनुवाद किया है। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वे एक प्रकार से अनुवाद कला में पारंगत हो चुके हैं। कारण तो और भी हैं।   
    डॉ. दइया को श्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा दोनों पर समान अधिकार है। वे दोनों भाषाओं की सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से भली-भांति परिचित हैं। उन्हें शब्दों को साधने की कला का ज्ञान है। वे सही शब्द को सही जगह इस तरह पिरोते हैं कि उस शब्द को यदि हटा दिया या बदल दिया जाए तो पूरी संरचना बिखर सकती है, वे अनुवाद के लिए जरूरी पांच बातों के मर्मज्ञ हैं। ये बातें हैं तन्मयता, लगाव, विषय वस्तु में गहरी पैठ, संवेदना का रचाव तथा प्रभावपूर्ण भाषा में अभिव्यक्ति की विशेष दक्षता।
    डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की रचना प्रक्रिया से वे अच्छी तरह भिज्ञ हैं। साथ ही वे मूल लेखक डॉ. आचार्य से निरंतर संपर्क में भी रहे तथा अनुवाद के प्रत्येक चरन पर उन्होंने पारस्परिक विचार-विमर्श को बनाए रखा। डॉ. आचार्य की कविताओं के शब्द अभिधात्मक रूप से चाहे सरल दिखते हो पर हर कविता आंतरिकीकरण की उपज होने से गहरा अर्थ बोध लिए हुए होती है। उस अर्थ बोध को राजस्थानी में सही रूप में रूपायित करने के लिए डॉ. दइया के पास मूल राजस्थानी शब्दों का विपुल भंडार है। एक प्रकार से उन्होंने डॉ. आचार्य की अनेक भावभूमियों की रचनाओं का राजस्थानी के एक मनमोहक कॉलाज प्रस्तुत किया है। साथ ही कविताओं की अर्थवत्ता, लय और अनुगूंज को भी बनाए रखा है। ऐसे शानदार अनुवाद के लिए वे वस्तुत: बधाई के सुपात्र हैं।
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अनुसृजन-प्रक्रिया भी बच्चे के जन्म की भांति
० शिवदान सिंह जोलावास, उदयपुर
  
     सृजन लेखक की कृति होती है लेकिन उससे कहीं दुश्कर काम है अनुसृजन। लेखक के मूल विचार, आत्मा और शब्दों का यथायोग्य चयन, संयोजन और उसी गंभीरता के साथ पुनः प्रस्फुटन। वैसे साहित्य जगत के लिए नीरज दइया कोई अनजाना नाम नहीं है। खास तौर से राजस्थानी के वर्तमान लेखकों की चुनिंदा सूची में शुमार सृजनधर्मी ने नन्दकिशोर आचार्य की रचनाओं को राजस्थानी भाषा में पिरोने का जो बेड़ा उठाया है वह निश्चित स्तुत्य है।
    पहली रचना के शब्द- “साचाणी कीं सिरजूंलाई/ का इयां ईज/ पग माथै आळी माटी लियां/ बस थपथपायां जावणौ है।” सच मायनै में अनुवादक दइया ने बड़ी ईमानदारी बरती, सबसे दूरभ कविताओं का चयन उससे भी दुश्कर कवि कलमगार नन्दकिशोर आचार्य जी से पुनः समीक्षा, इसके पश्चात् पाठक के पास अतिरिक्त संभावना नहीं रहती है। पुस्तक के शीर्षक को रेखांकित कविता पृष्ठ 63 पर प्रकाशित रचना पाठकों से कहती है।
    “म्हैं जिको/ मन-आंगणै थारै/ लेवणी चावूं कठैई नींद/ ऊंडै अंधारै/ क्यूं भटकूं उजास खातर/ जिको कर देवै म्हनै थारै सूं अळघो।” कवि ने जीवन के सत्य को कई रूपों में परिभाषित किया है, वह कविता के शब्दों में ही नहीं, शीर्षक के बिंब से भी अधिक सहज हो जाता है। ‘रम्मत’ में व्याख्यायित पंक्तिया हैं- “अेक दुनिय/ जिकी रम्मै म्हारै सूं/ है अेक दुनिया/ जिण मांय रम्मूं म्हैं।” ‘जातरा मांय’ कवि सीधे सरल शब्दों में जीवन का यथार्थ उकेरता है- “घर हुया करै उण रो/ हुवै पाछो आवणो जिण नै/ पण कोनी हुवै जातरी बो/ घिर परो आवै जिको।” वहीं ‘बेघर’ में कवि के भाव इस प्रकार है- “हरेक जातरा मांय/ घर सूं बेघर हुय’र/ जोवूं-/ खुद रो घर-/ रैय जावूं पण/ फगत थाकेलो लेय’र/ मानतां थकां धरमसाळा नै घर-/ आगली दाण/ फेर हुवण नै बेघर।”
    कवि ने रचनाओं के शीर्षक भी उतने ही गहरे परिवेश से जुड़े दिए है। यहां तक कि ‘चर-भर’ केवल शीर्षक मात्र से ही पूरा दृश्य उभर आता है- “सांकड़ी गळी री छियां मांय/ भाठै री चौकी माथै/ दोय जणा रम्मै चर-भर/ अेक चालै चाल/ दूजो मगन हुय’र/ रळावै-/ जरदै मांय चूनो।” ‘बंसरी: मोरपांख’ में संवाद को बड़े ही बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है- “इयां कोनी कै कोनी मिल्यो म्हनै माण/ गीरबो समझूं कै सदा होठां सज्योड़ी रैयी थारै। म्हारै करतां तो चोखी-/ बा मोरपांख/ जिकी सजी थारै मौड़-मुगट/ -अर जे नीं सजती तो ई/ उण रो रूप तो/ उण रो हो।”
    कवि ने समसामयिक घटनाओं के साथ पौराणिक ग्रंथों, महाकाव्यों के पात्रों व दृश्यों को भी अपनी रचनाओं में उकेरा है, जैसे- ‘बरबरीक’और ‘पांचाळी’ शीर्षक लम्बी कविताएं। “पण सगळा नै भोगण री चावना/ भरम हो म्हारो/ ऊंडै धंसग्यो हो म्हारै मन-आंगणै/ -ठेठ आतमा मांय- अर्जुन रो पराक्रम/ साची कैवूं तो किणी नै नीं भोग सकी/ म्हैं उण नै टाळ’र।” कवि अपनी शब्द-यात्रा कराता धरती के दक्षिणी गोलार्द्ध तक ले जाता है वो अपने संश्य को अण्टार्कटिका के चित्र से परिभाषित करता है। ‘दिन रो ई दिन’- “कित्ता’क दिन रैवैला रात? कदैई तो आसी/ दिन रो ई दिन/ कोई तो/ दिन।” दूसरी तरफ प्रेम की अभिव्यक्ति में उकेरे शब्द- “थारी ओळूं/ बो फूल जिको कोनी तोइयो म्हैं-/ डाली सूं/ उण मांय-/ खिलग्यो म्हैं ईज।” शीर्षक ‘बो फूल’।
    पुस्तक की हरेक कविता पढ़ते हुए लगता है अनुसृजन की प्रक्रिया भी उस बच्चे के जन्म की भांति है, जिसे मूल लेखक/ कवि ने अपनी आत्मा से जन्म दिया, इस मामले में नीरज दइया का ईमानदार प्रयास परिलक्षित होता है। हां, बेशक! किसी मोड़ पर जहां संवेदना का स्वाद बदलता है, कमी महसूस होती है कि कुछ और नया मिल जाता, लेकिन यह काव्य-यात्रा का अर्धविराम है। इसलिए गातांक से आगे क्या पर्दाफाश होगा, केवल रचनाधर्मी ही जानता है इसी उम्मीद में इस पुस्तक की समीक्षा पुस्तक की रचना से की जाए बेहतर होगा जहां “आसरै फगत ठौड़ माथै” में लेखक लिखता है- “अेक सबद री ठौड़/ बदळ्यां/ बदळ जावै जाणै/ कविता री आखी दुनिया/ ठीक बियां इज बदल जावै/ सबद रो ई आखो-संसार।”
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 “ऊंडै अंधारै कठैई” पुस्तक-लोकार्पण में कवि सर्व श्री राजेन्द्र जोशी, डॉ. नंदकिशोर आचार्य. 
डॉ. श्रीलाल मोहता, डॉ. अर्जुनदेव चारण, डॉ. नीरज दइया एवं बुलाकी शर्मा (बाएं से दाएं)

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